Saturday 4 October 2008

मैडम कभी लाइन में नहीं लगती...

सुबह बैंक खुलने से पहले ही पहुंचना था सो जल्दी-जल्दी तैयार होकर निकले। सोचा था ११ बजे के पहले कहाँ काम होता है लेकिन जब पहुंचा तो देर हो चुकी थी. लम्बी लाइन लगी हुई थी और काफ़ी सारे लोग आगे लाइन में पहले से लग चुके थे... काम जरुरी था इसलिए मैं भी पीछे लग गया...लाइन बहुत धीरे-धीरे चल रही थी और कई सारे लोग ऑफिस से आए थे इसलिए उनको जल्दी थी. बीच-बीच में लोगों के फ़ोन बजते और लोग कह उठते सर/मैडम बस ५ मिनट में पहुँच रहा हूँ, बस बहन की फीस भरने की आखिरी तारीख थी इसलिए बैंक आ गया...पहुँच रहा हूँ॥ जब भी कोई लाइन में साइड से लगने का प्रयास करता अचानक पीछे लाइन में लगे लोग चिल्ला पड़ते. तभी एक महिला का आगमन हुआ. उन्होंने एक्सक्यूज मी के लजीज शब्द से हॉल में एंट्री मारी.. भीड़ और लम्बी लाइन की परवाह किए बिना उनके कदम हौले-हौले लाइन में आगे की तरफ़ बढ़ते चले गए. अपना कागज़ निकाला और ये देखे बिना कि लोग उसी लाइन में अपना काम कराने के लिए काफ़ी देर से खड़े हैं उन्होंने अपना कागज़ काउंटर मैन को बढ़ा दिया. पीछे लाइन में खड़े आदमी ने आगे वाले को कुहनी मारी... लेकिन आगे वाले को कुछ नहीं बोलते देख वो खौल उठा और बोल पड़ा मैडम लाइन से आइये न. मैडम ने अपनी गर्दन उसकी ओर घुमाई और उसे ऐसे देखा जैसे उसने कोई असंसदीय भाषा का इस्तेमाल कर दिया है. और पूरे विश्वास के साथ कहा कि-- मैडम कभी लाइन में नहीं लगती...

अबला नारियों के देश कहे जाने वाले भारत की राजधानी दिल्ली जैसे शहर में अबला नारियों के सशक्त बनते जाने के ऐसे ही कई प्रमाण रोज देखने को मिलते हैं। सिनेमा हॉल हो, बैंक हो, फ़ोन बिल- पानी बिल- या किसी भी प्रकार का बिल जमा करना हो सभी जगह ये नज़ारा देखने को मिल जाता है/ दिल्ली के ब्लू लाइन बसों की तो बात ही कुछ अलग होती है. एक तरफ़ की पूरी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित लिखी रहती बसों में ये कम भी होती है और कई में एक तरफ़ की पूरी..यानी कि बस वाले अपनी सहूलियत से आरक्षण की सीमा तय करते रहते हैं. खाली देखकर अगर कोई पुरूष या लड़का किसी महिला सीट पर विराजमान हो जाए और अगले बस स्टैंड पर कोई महिला या लड़की बस में चढ़ जाए तो देखिये नज़ारा. अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए या तो लड़का पहले ही सीट छोड़ दे या फ़िर अपमानित होने के लिए तैयार रहे. जैसे ही महिला सीट पर कोई पुरूष दिखा लड़किया आकर उसे इशारा करती है...ऊपर कि ओर जहाँ महिला लिखा रहता है. लड़के भी आखिरी वक्त तक अपनी लड़ाई लड़ते हैं. लड़की ने ऊपर इशारा किया..लड़का उसके सामने जबतक फ़िर से उसे पढ़कर सही होने की पुष्टि नहीं कर लेता सीट छोड़ना उसे ठीक नहीं लगता. लेकिन महिला लिखित सीटों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने वाली लड़कियों को मैंने कभी नहीं देखा है कि उन्होंने कभी किसी बुजुर्ग के लिए सीट छोड़ी हो. इस काम की अपेक्षा भी हमेशा लड़को से ही की जाती है. मैंने आज तक कभी किसी बस में इस तरह का नजारा नहीं देखा है. चाहे सीट पर बैठी लड़की २० साल की नवयुवती ही क्यूँ न हो लेकिन वो किसी बुजुर्ग के लिए सीट नहीं छोड़ सकती है.

ब्लू लाइन बसों में रोजाना सफर करने वाली लड़किया सीट पाने के लिए कुछ विशेष तरीके भी आजमाती हैं। अगर ब्लू लाइन बस के ड्राईवर कंडक्टर से उनकी जान पहचान बन गई तो रोजाना उनकी सीट पक्की. आगे की बालकनी की सीट ऐसी लड़कियों के लिए पक्की रहती इस इलाके को -नो मैन्स लैंड- कह सकते हैं. इस इलाके में अगर गलती से कोई लड़का घुस गया तो उससे कंडक्टर ऐसे सलूक करता है जैसे वो भारत की सीमा में घुसा कोई अवैध बंगलादेशी नागरिक हो. चमक-दमक और रंगी-पुती लड़कियों से भरे उस इलाके को बस के बाकी हिस्सों में बैठे लड़के ऐसे देखते हैं जैसे बॉम्बे के पास के इलाको में बैठे लोग बॉम्बे शहर की रंगीनियत को देखते हैं...

4 comments:

प्रशांत मलिक said...

अच्छा लिखा है

Udan Tashtari said...

अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो वाला आलेख बार बार याद आता है और आज आपको पढ़कर फिर अपनी प्रार्थना याद आ गई. :)

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

सच है जी...। सारी दुनिया तो बस लड़कों के पीछे पड़ी हुई है।

राजीव जैन said...

pahli baar aapke blog per aaya

bahut badia