ऐसा नहीं है कि विश्व बैंक के इस आंकडे पर हमें कोई हैरानी हुई है. क्योंकि न तो हम भारत को विकसित देश मानने के मुगालते में जी रहे हैं और ना ही हमारी नज़र में भारत के चमकते मॉल पूरे देश की सम्पन्नता का प्रतीक है. लेकिन विश्व बैंक के ताज़ा अध्ययन से प्राप्त आंकडे बताते हैं कि गरीबी में हमने सबसे गरीब माने जाने वाले सारा-सहारा अफ्रीका इलाके को भी पीछे छोड़ दिया है. और रही बात हमेशा चीन से तुलना करने की हमारी आदत की तो चीन ने हमें अब इस लायक नहीं छोड़ा है. चीन में गरीब(?) हमारे देश की तुलना में आधे से भी कम हैं. विश्व बैंक द्वारा गरीबी के आकलन का ये हिसाब प्रतिव्यक्ति आय और खरीद क्षमता से लगाया गया है. जिसके अनुसार हर वो व्यक्ति गरीब माना जाएगा जो रोज १.२५ डॉलर से कम कमा पाता है.
आंकडे बताते हैं कि २००५ में हमारे देश में गरीबी रेखा से निचे जीवन-यापन करने वाले लोगों की संख्या ४५ करोड़ के आसपास है. ये अलग बात है कि भारत में गरीबी रेखा का मानक कुछ और है और पश्चिमी देशों में कुछ और. लेकिन गरीबी तो गरीबी है, वो चाहे भारत में हो या फ़िर पश्चिम के किसी देश में. वैसे भी भारत हो या कोई और देश चुनाव के वक्त सबसे ज्यादा बिकाऊ आइटम गरीबी ही होता है. अगर ऐसा नहीं होता तो हमारे देश में राजनीति चमकाने के लिए सभी बड़े नेता गरीबों के साथ फोटो क्यूँ खिंचवाते. गरीबो के घरों का दौरा क्यूँ करते और गरीबों के घरों की रोटियाँ तक क्यूँ खाते.
भारत में गरीबी के इस भारी-भरकम आंकडे को देखकर मन में कई सवाल उठते हैं. आंकडों के अनुसार एक अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश के करीब ४२ फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं. असल मसला ये है कि इस गरीबी के परिधि में कौन-कौन लोग शामिल हैं. जाहिर है इसमें देश के खेतों में पसीना बहाने वाले लोग तो शामिल होंगे ही. खेतो में पसीना बहाने वाले अधिकाँश लोगों की रोजाना की आय न तो १.२५ डॉलर से ज्यादा है और न ही उनके पास पूरे साल भर के लिए काम होता है. भारत में ऐसे लोगों के पास काम हो इसके लिए सरकार ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शुरू की ताकि कम से कम इनके पास साल में १०० दिनों का रोजगार सुनिश्चित किया जा सके. इसके तहत लोगों को सड़क आदि बनाने के काम में रोजगार प्रदान किया जाता है. इस योजना में कई पेंच है. किसी के लिए ये सूटेबल नहीं है तो किसी के लिए ये पाना आसान नहीं है. दूसरी बात की अगर साल में १०० दिन ८० रुपया कम भी लोगों तो साल भर की औसत कमाई आपको गरीबी रेखा से ऊपर नहीं पहुँचा सकती.
इस ४२ फीसदी की परिधि में वे भारतीय भी शामिल हैं जो किसी न किसी प्राकृतिक आपदा के शिकार होते रहे हैं. अब बिहार में ही देखिये वहाँ इन दिनों भयंकर बाढ़ आई हुई है. नेपाल से आने वाली कोसी नदी का पानी १५ जिलों में घुस चुका है और ३० लाख से भी ज्यादा लोग अपना घर छोड़कर बांधों और टीलों पर जीवन बिताने को मजबूर हैं. ये लोग ऊँचे स्थानों पर बैठकर अपने घर के सामानों को बाढ़ के पानी में बहते हुए देखने को मजबूर हैं. कितने डूबकर मर गए इसका हिसाब लगाने की फुर्सत किसी को नहीं हैं. तत्काल राहत के लिए लोग भले ही पैसे की बरसात कर रहे हों लेकिन किसी को भी इसके स्थायी हल के लिए कुछ नहीं करना है. उत्तर प्रदेश, असम जैसे कई राज्यों में भी ऐसी ही बाढ़ आई हुई है. इन राज्यों में हर साल ऐसी बाढ़ आती है. दूसरी ओर कई राज्य सूखे की समस्या की जद में हैं. विदर्भ, तेलंगाना, बांदा जैसे इलाके के लोगों के लिए सुखा जैसे उनकी नियति बन गया है. अब अगर ये लोग गरीबी रेखा से ऊपर ख़ुद को नहीं उठा पा रहे हैं तो इसमें उनका क्या कसूर है. वे न तो नेपाल से आने वाले पानी को रोक सकते हैं और ना ही सूखे के लिए ख़ुद कोई प्रबंध कर सकते हैं. गरीबी रेखा में रहना उनके लिए गाड गिफ्टेड है.
वर्ल्ड बैंक के इस आंकडे में उडीसा और जम्मू-कश्मीर के वे लोग भी शामिल हैं जो कार्फू के कारण अपने काम पर नहीं जा पाते होंगे, जिनकी दुकाने, जिनके घर, जिनकी गाडियां और अन्य सामन दंगाइयों ने तहस-नहस कर डाली. उन्हें भले ही उन मुद्दों से कोई मतलब नहीं हो जिनके नाम पर जारी बवाल में उन्हें नुक्सान उठाना पड़ रहा हो लेकिन इसी बहाने बिना कोई गलती किए ये लोग वर्ल्ड बैंक द्वारा चिन्हित गरीबों की सूचि में डाल दिए गए.
इन आंकडों में वे लोग भी शामिल होगे जो झारखण्ड, छत्तीसगढ़, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों के नक्सल प्रभावित इलाकों में रहते हैं और खुलकर अपना जीवन जीने की सुविधा से भी वंचित हैं. ये लोग विभिन्न नक्सली संगठनों की आपसी लड़ाई के सबसे आसान शिकार बन्ने के आदि हो गए हैं. इस आंकडे में पूर्वोत्तर भारत के वे लोग भी शामिल होंगे जो अलगाववाद की राजनीति की लड़ाई में बम-गोलियों के शिकार हो रहे हैं.
सवाल उठता है कि अगर वर्ल्ड बैंक के आंकडों में भारतीय गरीबी का ग्राफ ऊपर उठता जा रहा है तो इसके लिए किसे कसूरवार ठहराया जाए. मेह्नात्कास भारतियों को गरीब बनाने वाला कोई एक कारण हो तो कुछ बात भी बने लेकिन जब इतने सारे कारण हो तो मामला काफ़ी जटिल हो जाता है. दूसरी बात ये भी है कि अगर देश से गरीबी मिट गई तो चुनाव के वक्त गरीबी हटाओ का नारा देकर भूखे-नंगे लोगों को गोलबंद करने का अवसर भी ख़त्म हो जाएगा. इसके लिए भी देश में गरीबों का होना जरुरी है. लेकिन इसका मतलब ऐसा भी नहीं है हमारी राजनितिक बिरादरी इस समस्या पर कुछ नहीं कर रही है. चुनावी रैलियों और सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए लोगों को पैसे देकर लाने की परिपाटी भी तो रोजगार प्रदान करने का एक प्रयास ही माना जाना चाहिए. क्या पता ऐसे प्रयासों से ही वर्ल्ड बैंक के गरीबों के ग्राफ में हम नीचे अपना स्थान बना सकें...
4 comments:
अच्छा आलेख!!
अच्छा लेख..
अच्छा लिखा है।
बहुत अच्छा लिखा एसे ही सामाजिक विषयों पर लेखनी चलाने की आज अपरिहारय आवश्यकता है ।
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