Sunday 27 December 2009

अंधेर नगरी-चौपट राजा!

बात-बात में मीडिया को कोसने वाली जनता आज कहाँ है. जो काम उसे करना चाहिए था वह मीडिया कर रहा है. मीडिया ने साबित किया है कि जो गलत है उसे रोकने में वह एक सशक्त माध्यम बन सकता है, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि इस काम में आखिरकार सबकुछ जनता के ऊपर ही टिकी हुई है. मीडिया के एक स्टिंग ऑपरेशन ने सेक्स स्कैंडल के आरोप में फंसे एक राज्य के गवर्नर को महज ३० घंटो के अन्दर राजभवन से बेदखल करवा दिया और राजनीतिक जमात को यह याद दिला दिया कि राजभवन की गरिमा क्या होती है. मीडिया के लगातार अभियान के कारण एक राज्य के एक रसूखदार पुलिस अधिकारी के ऊपर इन दिनों शामत आई हुई है. इन अधिकारी के ऊपर एक युवा महिला बैडमिन्टन खिलाड़ी के साथ छेड़-छाड़ और उसे आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप है. यह घटना १९ साल पुरानी है, मीडिया ने यहाँ देश के न्याय व्यवस्था पर भी सवाल उठाया है कि आम आदमी के लिए न्याय का पैमाना क्या है और रसूखदार लोग किस तरह से प्रशासन का इस्तेमाल कर न्याय प्रक्रिया को बाधित करते हैं और साथ ही यह सवाल भी कि न्याय व्यवस्था इसे रोकने के लिए क्या कर रही है? मीडिया के अभियान के बाद आज केंद्र से लेकर उस राज्य तक की सरकार इस मामले में जागी है और तमाम महिला संगठन भी न्याय दिलाने के लिए आगे आये हैं.

.
सवाल यहाँ और भी कई हैं, जिसमे दोष आखिरकार जनता के ऊपर ही आता है. इसी देश की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में महज २-३ सालों में एक मुख्यमंत्री हजारो करोड़ का गबन कर जाता है, न्याय व्यवस्था उसके साथ क्या करती है ये तो सवाल हमारे सामने मौजूद है हीं, लेकिन जनता ने ऐसे जनप्रतिनिधियों के साथ क्या किया ये भी सोचने वाली बात है. इस घटना के उजागर होने के कुछ महीनों के अन्दर ही जनता उस शख्स की पत्नी को चुनकर विधानसभा में भेज देती है. एक ऐसी जगह जहाँ जाकर उसे जनता के लिए नियम-कानून और नीतियाँ बनाना है. जब जनता खुद ही ऐसे लोगों के हाथों में अपनी तक़दीर सौंप रही है तो फिर किस अधिकार से देश की जनता राजनीतिक जमात पर ये आरोप लगाती है कि देश की आजादी के ६ दशकों बाद भी समुचित विकास नहीं हुआ और आज भी बेरोजगारी, गरीबी और अशिक्षा जैसी समस्याएं देश में मौजूद है. सच कहा जाये तो प्रशासन देश की जनता के विचारों और उसकी दृष्टि का आइना होती है और हम जैसे हैं वैसा ही हमें राजनीतक नेतृत्व मिला है. अगर हम इससे खुश हैं तो फिर कोई और तो आयेगा नहीं हमें बचाने...हम यूहीं पिसते रहेंगे...महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं की चक्की में और राजनीतिक जमात हर साल लोकतंत्र और चुनाव के नाम पर हमारे सामने ही करोडो-अरबो रूपये उड़ाता रहेगा और उसमें से कुछ नोट हमारे सामने भी फेंक दिया करेगा हर बार- एक वोटर होने के नाते...शायद इसी वक्त के लिए कहा गया है--"अंधेर नगरी-चौपट राजा!"

Thursday 17 December 2009

सच भाई... जमाना कितना बदल गया न...

जमाना कितना बदल गया। पहले शादी-ब्याह के मौके पर लड़के-लड़की ऐसे सकुचाये-सकुचाये घूमते थे जैसे जबरदस्ती उनकी शादी हो रही हो और उनके पास बचने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए शरमा-शरमा कर काम चला रहे हों. हर बात शरमा-शरमा कर ऐसे बोलना ताकि कोई ये ना समझ ले कि ये खुद शादी करना चाहता है और काफी खुश है, इसलिए हर बात, हर अदा में शर्म दिखाना जरुरी होता था. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. अब तो मां-बाप अपनी जवान होती संतान को देखकर यही दुआ मांगते हैं कि भगवान इसे प्लीज नए ज़माने की हवा से बचाना. कहीं वो दिन नहीं देखना पड़े कि सुबह उठे तो पता चला- लड़का पड़ोसन की लड़की या फिर स्कूल की किसी सहेली के साथ फरार हो गया. चलो ऐसा कर भी ले तो सही लेकिन पता चला नए ज़माने की हवा में बहकर किसी दोस्त को ही जीवन साथी बनाकर घर मत चला आये. अगर ऐसा हो गया तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जायेंगे. हालाँकि मां-बाप का ये डर कोई यूँही नहीं है...समानता और मानवाधिकार के इस ज़माने ने इतनी तेज एंट्री मारी है कि सब देखते रह गए. आज सुबह अख़बार में एक तस्वीर पर नजर गयी. अख़बार में एक फोटो छपी थी जिसके नीचे लिखा था- विवाह के बाद माता-पिता आशीर्वाद देते हुए. बीच में मां-बाप बड़ी शान से अपने दोनों तरफ खड़े नवविवाहित जोड़े के सर पर हाथ रख आशीष दे रहे थे. मै तस्वीर में दुल्हन ढूंढता रह गया. मां-बाप के दोनों तरफ दो लड़के शेरवानी पहने खड़े शान से नए जीवन में प्रवेश के वक्त मां-बाप का आशीर्वाद ग्रहण कर रहे थे. फिर माजरा समझ में आया, बस मुंह से इतना ही निकल पाया- भाई नए ज़माने के प्यार का झोंका है.
...
वैसे पहले की फिल्मों में शादी का नाम लेते हीं लड़कियां सकुचाकर-शरमाकर भाग जाती थी और ज्यादा पूछने पर बस इतना ही कहा करती थी- जैसा पापा चाहें. लेकिन फिर जमाना बदला. लड़कियों ने लडको को चुनना और रिजेक्ट करना शुरू कर दिया. देश के अनेक हिस्सों से ख़बरें आने लगीं कि लड़का पसंद ना होने पर लड़की ने बारात वापस भेजा. जो मां-बाप कल तक बिना पूछे शादियाँ तय कर दिया करते थे वे कुछ भी करने से पहले अपनी संतानों की राय लेना सीख गए. लेकिन जमाना उस दौर से भी आगे निकल रहा है. अब शादियाँ टीवी के परदे पर भी होने लगी हैं. हमेशा बोल्ड और बिंदास और कईयों के शब्दों में कहें तो अपनी भद्दी अदाओं से हमेशा लोकप्रियता बटोरते टीवी सितारे अचानक टीवी के परदे पर अपना जीवन साथी तलाशने निकल पड़े. अपने बदले हुए रूप में टीवी ने किसी की शादी कराना शुरू किया तो कोई टीवी के परदे पर बच्चा पालता नजर आया. दर्शकों ने भी इस नयी दुनिया का दिल खोलकर स्वागत किया और टीवी चैनलों को टीआरपी देने के अलावा एसएमएस भी खूब भेजे. घर-घर में चर्चा होने लगी और कयास लगाये जाने लगे कि कौन सी दावेदार शादी कर पाने में सफल होगी. टीवी के परदे पर ही परफेक्ट ब्राइड चुने जाने लगे. अपने रियल लाइफ में अपना वैवाहिक जीवन असफल साबित कर चुके लोग खुद को चमका-दमका कर फिर से कूद पड़े टीवी के परदे पर अपना जीवनसाथी चुनने के लिए. टीवी पर आकर ऐसी बातें करने लगे जैसे उनसे ज्यादा कोई मासूम नहीं हो. लेकिन टीवी की महिमा है लोगों को बदलने का मौका दे रही है, चलो बदल जाये तो अच्छा ही होगा. दुनिया बदल रही है और टीवी वाले इस बदलाव को तेज बना रहे हैं. सबकुछ यूँ बदल रहा है जैसे स्वप्न नगरी हो.

Tuesday 15 December 2009

मुद्दे हम बनाते हैं...

महंगाई के इस दौर में
जार-जार होकर जनता
बस इतना ही कह पाती है-
हमारी कोई नहीं सुनता
किसी को नहीं हमारी फिकर...
लेकिन क्या हम अपनी बदहाली के
खुद जिम्मेदार नहीं...
आज़ादी के ६ दशकों बाद भी
नहीं है हम
अपनी पेट भरने को आश्वस्त
और ना ही है हमें
रोजगार पाने की गारंटी।

हाँ, मजदूरी के लिए
है हमारे पास गारंटी स्कीम
लेकिन क्या सोचा है हमने कभी
देश का पढ़ा-लिखा वर्ग
कैसे पायेगा रोजगार।
क्या वो भी
सड़क निर्माण में
ईंट-पत्थर ढोकर रोजगार की गारंटी पाए
और कहे खुद को
महाशक्ति बनने को आतुर
२१वी सदी के इंडिया का .नागरिक
जहाँ कुछ सालों में ही
राजनेताओं की तिजोरियों में
आ जाते हैं हजारो-हज़ार करोड़ रूपये
और फिर सालो-साल चलने वाले
मुकदमों की दौड़ में
खो जाती हैं यादे देश को लूटने वाले लोगों की
और फिर हम चल पड़ते हैं अगली
चोट खाने को
लोकतंत्र के हाथों॥

हमारे यहाँ मुद्दे कभी नहीं चुकते
रोटी की बढ़ी हुई कीमते
हमें एकजुट नहीं करती,
नहीं करती हमें तोड़-फोड़ पर उतारू
बेरोजगारी की मार भी,
लेकिन जब राज्य बाटना होता है
तो हम उतर पड़ते हैं सडको पर,
जब करने होते हैं दंगे
हमारी मर्दानगी जाग उठती है
और फिर शान से सर उठाये
हम बन पड़ते हैं अपने समुदाय के पहरुए।
लेकिन अपने लोगों की दुर्दशा
हमें नहीं बिचलाती
क्यूंकि हमारे पेट को
मिल जा रहा है अनाज फ़िलहाल!

Friday 30 October 2009

बिहार में राजनीति के जरिये विकास की बयार!

अगर सीधे शब्दों में कहें कि आधा बिहार राजनीतिक हो गया है तो कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। हाल ही में अपने गाँव गया था। पिछले २० सालों से वहां के बदलाव को मैं देख रहा हूँ लेकिन इस बार जो देखा वाकई गौर करने लायक है. बदलाव की ये बयार पिछले ४-५ सालों में बहुत प्रबल हुई है और अब उसका असर गाँव-गाँव में दिखने लगा है. इसका श्रेय जाता है देश के शीर्ष नेतृत्व की सोच और लोकतान्त्रिक संस्थाओं की मजबूती को. हर जगह विकास का अपना अलग-अलग रास्ता होता है, बिहार में बदलाव और प्रगति का ये काम राजनीति के जरिये हो रहा है. वैसे भी बिहार को राजनीतिक पहचान वाली जमीन के रूप में बहुत पहले से जाना जाता है. मुझे याद है ५-६ साल पहले का वह वक्त... जब बिहार में ग्राम प्रधान का चुनाव हुआ था तब बिहार में गांवो के स्तर पर पहली बार राजनीतिक हलचल मचते दिखी थी, इसके पहले चुनावों में उतरने का काम कुछ खास लोगों तक ही सीमित था. तब गांवो के लोगों को पहली बार लगा था कि सत्ता में उनकी भी भागीदारी हो सकती है. उस बार कई स्तर पर चुनाव हुए थे. ग्राम प्रधान के लिए, वार्ड मेंबर के लिए, पंचायत समिति के लिए और प्रखंड स्तर की संस्थाओं के लिए भी. तब जाकर काफी संख्या में लोग चुनाव मैदान में दिखे थे. यूँ कहें तो राजनीति घर-घर के बीच शुरू हो गई और साथ ही वहां आगे बढ़ने की होड़ भी शुरू हुई, एक प्रतियोगिता का माहौल पैदा हुआ. देश के अन्य राज्यों में जाकर काम करने वाले कईयों ने गाँव वापस आकर राजनीति में अपनी किस्मत आजमाई और सफल भी रहे। इसके बाद बड़े पैमाने पर शिक्षक बहाली के सरकारी कदम ने गाँव में रह रहे शिक्षित युवा वर्ग के लिए रोजगार की एक उम्मीद पैदा कर दी। शिक्षामित्र, आंगनवाडी जैसे कार्यक्रमों ने स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा किये और करीब हर गाँव के ८-१० लोग इन कार्यक्रमों के जरिये रोजगार पाने में सफल रहे॥वहीँ स्थानीय राजनीति के उभाड़ ने कईयों को इस राजनीति में लगा दिया...इसके आलावा ग्रामीण रोजगार गारंटी के कार्यक्रम और सस्ते अनाज के कार्यक्रमों ने भी वहां बदलाव की उम्मीद जगाई है.
.

ग्राम प्रधान के चुनाव के बाद सत्ता के विकेंद्रीकरण की दिशा में पैक्स का चुनाव अगला कदम साबित हुआ है. हाल में जब गाँव गया हुआ था तब वहां पैक्स के चुनाव की धूम थी. पैक्स ग्रामीण कृषि और सहकारी समिति है और पंचायत स्तर पर इनके सदस्यों का चुनाव होना था. इस बार हर जगह धूम थी... पैक्स अध्यक्ष और सदस्यों के पद पर कब्जा ज़माने के लिए लोगों ने पूरा जोर लगा रखा था. खैर इस कार्यक्रम के तहत भी काफी लोग राजनीति में शामिल कर लिए जायेंगे और कई अन्य लोग भी इनसे लाभान्वित होंगे. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वहां की ग्रामीण आबादी राजनीति की प्रक्रिया में शामिल होकर सशक्त हो रही है. हालाँकि अभी भी चुनावों में कई जगह बाहुबल का प्रयोग देखने को मिल रहा है और राजनीति में जातीय गोलबंदी भी जारी है..वैसे इसमें कुछ भी नया नहीं है और ऐसी स्थिति शुरूआती दौर में देखने को मिलती ही है. उम्मीद है कि आने वाले समय में बिहार इन कुछ नकारात्मक बातों को पीछे छोड़कर बदलाव की प्रक्रिया को आत्मसात कर लेगा.

Sunday 4 October 2009

खगड़िया नरसंहार के सन्देश!

बिहार के खगड़िया जिले में नरसंहार हो गया...बाहर वालों के लिए ये एक नक्सली हमला भर है जैसा रोजाना छत्तीसगढ़, झारखण्ड और दक्षिण बिहार के कई इलाकों में होते रहता है। उनके लिए ये बस एक खबर भर है लेकिन जो लोग बिहार को समझते हैं. जिन्होंने बिहार को करीब से देखा है और जो पिछले कुछ सालों से बिहार में कोई नरसंहार न होने के कारण सुकून की सांस लेने लगे थे उनके लिए खगडिया वाली घटना कोई आम घटना नहीं है क्यूंकि वे जानते हैं कि यह आने वाले तबाही की एक झलक भर है और उन्हें ये भी मालूम है कि कहीं न कहीं इस आग को भड़काने में हमारे यहाँ की जातीय राजनीति जिम्मेदार है। बिहार में भूमि विवाद बहुत पुराना है और इसी का फायदा उठाकर रणवीर सेना और नक्सली वहां दशकों से अपना धंधा करते रहे और यह आज भी बदस्तूर जारी है।
.
लेकिन कहा जाता है कि जब भी मामला संवेदनशील हो तो शासन सत्ता को गंभीरता के साथ पेश आना चाहिए...जिसका आज बिहार के राजनीतिक नेतृत्व में आभाव सा दिखने लगा है। जब नीतिश कुमार की सरकार बिहार में आई थी तब सबने उम्मीद की थी कि ये बिहार के लिए नई करवट होगी और जातीय राजनीति से ऊपर उठकर यह सरकार बिहार के लोगों को प्रगति के रास्ते पर ले जाने में कामयाब होगी. लेकिन हाल में जब पूर्व राजस्व और ग्रामीण विकास सचिव डी बंदोपाध्याय ने भूमि सुधारों पर अपनी रिपोर्ट सौंपी तो उम्मीद की जा रही थी कि सरकार का रुख बहुत सधा हुआ होगा और ऐसा कुछ नहीं किया जायेगा जिससे बिहार फिर जातीय और वर्गीय लड़ाई की आग में कूद पड़ेगा. लेकिन जब सरकार की इसपर प्रतिक्रिया सामने आई तो जमीन के मालिकों को बेचैन कर देने वाला था. बटाईदारों को जमीन का मालिक बना दिया जायेगा ऐसा सुनकर भला कैसे समाज में टकराव नहीं होगा? सरकार के इस रुख को देखते हुए जमीन के मालिक बटाईदारों से अपनी जमीन वापस लेने लगे और राजनीतिक दांव-पेंच में स्थानीय नेताओं ने इस आग को हवा दी. नक्सलियों को फिर से मजबूत होने का मौका मिल गया. इसी की परिणति थी खगडिया में हुआ नरसंहार.
.
लेकिन अगर दूरदर्शी नजरिये से देखा जाये तो इसमें नुकसान बटाईदारो का ही ज्यादा है. अबतक जमीन पर खेती की एक परिपाटी होती थी..जो जमीन का मालिक है अगर वह अपनी जमीन पर खेती नहीं कर कोई और काम कर रहा हो तो वह खेती के काम में लगे लोगों को अपनी जमीन बटाई पर दे देता था और उसके बदले एक निश्चित रकम या फिर उगे हुए अनाज का निश्चित हिस्सा उसे मिलता था. खेती करने वाला शख्स मेहनत करके अपना हिस्सा पाता था.. सच कहें तो इसमें बटाईदार को आधे से भी ज्यादा हिस्सा मिलता था. लेकिन जब यह कहा जायेगा कि जो बटाईदार है जमीन उसी की हो जायेगी तो फिर मुश्किलें बढेंगी ही न.. मालिक अपना जमीन ले लेगा और अपना जमीन भले ही खाली रखेगा लेकिन बटाई पर नहीं देगा. इससे बटाईदार के घर जो अनाज जाता था वह रुक जायेगा और देश के हिस्से में जो उत्पादन हो रहा था वह भी रुक जायेगा...ये तो विकास ठप्प करने वाला और सामाजिक संघर्ष बढ़ने वाला कदम ही साबित होगा. ये बिलकुल वैसे ही होगा कि कोई अपनी मेहनत की कमाई से घर बनाये और उसे किसी को किराये पर रहने को दे और सरकार कहे कि जो रह रहा है वही घर का मालिक होगा..फिर कोई क्यूँ अपना घर किसी को किराये पर देगा. खगडिया में हुई घटना तो एक शुरुआत है और अगर बिहार की सरकार व्यावहारिक नजरिया नहीं अपनाती तो जमीन की लड़ाई की ये आग पूरे बिहार में फ़ैल जायेगी और खेती प्रधान बिहार राज्य उत्पादकता भूलकर तबाही के काम में लग जायेगा.

Saturday 26 September 2009

अब तमीज़ सीखेंगे दिल्ली वाले!

सुना है सरकार अब दिल्ली वालों को तमीज सिखाएगी। अगले साल बहुत सारे मेहमान आने वाले हैं इसलिए दिल्ली सरकार ने फैसला किया है कि उनके आने से पहले सबको सड़क पर चलना, कायदे-कानून से लेकर थूक फेंकना तक सिखाना है। इसके लिए जो भी सजा देना हो दिया जायेगा. केवल दिल्ली की सरकार के लिए उनके बिगड़े हुए ये बच्चे चिंता का विषय नहीं हैं बल्कि बात अब हाईकमान तक पहुच गई है. अभी कल ही की बात है केंद्र सरकार के एक आला मंत्री महोदय दिल्ली वालों को तमीज सीखने की सलाह दे गए. उन्होंने दिल्लीवासियों को हिदायत दी है कि खेलों की शुरुआत से पहले उन्हें अपनी आदतें बदल एक बड़े अंतरराष्ट्रीय शहर के निवासियों की तरह बर्ताव करना सीख लेना चाहिए। बकौल उनके यहां कानून उल्लंघन के बढ़ते मामलों ने सरकार को चिंता में डाल रखा है। उन्होंने कहा कि दिल्ली में आज भी वाहन खुलेआम रेड लाइट का उल्लंघन कर रहे हैं। ढेरों गाड़ियां बिना रजिस्ट्रेशन के चल रही हैं। कुछ वाहन मनमाने ढंग से कहीं भी सड़क क्रास कर लेते हैं। लोग ओवरब्रिज व अंडर ग्राउंड रास्तों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। अब जाहिर सी बात है कि अगर लोग इतने बदतमीज है तो सरकार का बिगड़ना लाजिमी है. अरे भाई सुधरो और अगर नहीं सुधरोगे तो बाहर से आये लोगों के बीच कितनी बदनामी होगी.
.
तमीज सिखने का जहाँ तक सवाल है उसपे तो दिल्ली वाले बैकफूट पर हैं लेकिन साथ ही अधिकांश लोगों को ये भी लगता है कि सरकार को उनकी फ़िक्र नहीं है बल्कि बाहर से आने वाले मेहमानों की फिकर है वरना अगर पहले से ही सुविधाए बढाई गयी होती तो फिर तमीज यहाँ के लोगों की आदत में शुमार हो चुका होता। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ बरसात की उन रातों के बीते...जब थोडी सी बरसात के बाद दिल्ली की सड़के थम गयी थी और लोगों ने घिसट-घिसट कर कार्यालय से अपने घर की दूरी घंटों में तय की थी. तब इसी सरकार ने हाथ उठाते हुए कहा था कि बरसात होगा तो जाम लगेगा ही और इसका कोई उपाय नहीं है. अब आप ही बताइए जब सरकार अपना काम नहीं कर सकती तो जनता से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो अपनी जिम्मेदारियां सही तरीके से निभाए. अभी गर्मी का मौसम भी पूरी तरह से नहीं बिता है...लोगों को अभी पानी और बिजली के लिए तड़पते ज्यादा दिन नहीं हुए. बिजली कटौती के कारण रात-रात भर घर से बाहर टहलने को मजबूर दिल्ली वालों ने तब भी बदतमीजी की थी और कई जगहों पर बिजली विभाग के कार्यालयों पर तोड़-फोड़ किये थे. नलों के सूखे टोंटे और पानी के लिए टैंकरों के आगे लम्बी-लम्बी लाइने देखकर भी दिल्ली वालों का तमीज गडबडा गया था. इसके अलावा लगातार बढती महंगाई देखकर भी अगर दिल्ली वाले बदतमीजी कर दें तो कोई हैरानी नहीं होगी...
.
लेकिन ये रही उनकी बात. ये उनकी अपनी समस्या है. सरकार को उस बात से ज्यादा चिंता है कि अगले साल मेहमान आने वाले हैं और उनके सामने नाक नीची नहीं होनी चाहिए. इसके लिए सरकार करोडो-करोड़ फूंक रही है और हर चीज उनके लिए चकमक तैयार हो रहा है. चमचम सड़के, चमचम होटल, अच्छे-अच्छे क्लब, बड़े-बड़े स्टेडियम, मस्त चमचमाती बसें..मेट्रो भी उनके आने तक उस इलाके में एकदम फिट हो जायेगी...बस अब जनता भी अपनी जिम्मेदारी निभाए..उनके सामने थोडा तमीज से रहे..बस अब इसी की फिकर है. ये देखकर बचपन के वे दिन याद आ जाते हैं जब घर में कोई मेहमान आने वाला होता था तो घर वाले सुबह-सुबह नहलाकर और नए कपडे पहनकर बैठा देते थे और साथ में ये नसीहत भी चिपका देते थे कि देखो उनके सामने कोई शरारत मत करना और अगर वे मिठाई लायें तो उनके सामने मत मांगना.

Wednesday 23 September 2009

मिलावट का ये जमाना...आम आदमी और टीवी!

लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने का अधिकार है॥टीवी वालों को भी। सो उन्हें जो मन में आ रहा है दिखा रहे हैं ...हमें भी अधिकार है अपनी बात कहने का इसलिए कह रहा हूँ. यहाँ बस स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्परा काम कर रही है और कुछ नहीं. यूँ कहें तो हम टीवी की बुराई भी नहीं कर सकते क्यूंकि उसे देखे बिना काम भी नहीं चलता.. मेरे जैसे न जाने कितने लोगों के लिए टीवी की पत्रकारिता ने उम्दा काम किया है. मिलावटी तेल, घी, ब्रेड छुडाने के बाद जब नवरात्र शुरू होने वाला था कि अचानक एक दिन रिमोट से फिर टीवी को वो चैनल लग गया. फिर क्या था घर में इलाइचिदाना और बताशा आना भी बंद हो गया. इन चीजों के बनने की मिलावटी और करुण कहानी देखकर घर में सीधा फरमान जारी हो गया कि आज के बाद ये चीजे नहीं खरीद कर आएँगी...इतना ही नहीं पूजा के सीजन में मिलावटी खोये की कहानी देखकर मिठाई की खरीददारी भी १ महीने के लिए रोक दी गयी. अब रोजाना घर में पूजा के बाद मिठाई खाने की वो पुरानी यादें मन में ही बस के रह जायेगी. बचपन में घर में जब भी पूजा होती थी उसके बाद प्रसाद के रूप में हाथों में इलाईचिदाने के कुछ दाने डाल दिए जाते थे..वो चंद दाने इतने मूल्यवान थे कि जल्दी ख़त्म न हो जाये इसके लिए कई घंटों तक एक-एक दाने मुंह में डाल कर संभालकर रखते थे ताकि उसका स्वाद लम्बे समय तक मुंह में बना रहे. लेकिन अब वो स्वाद नहीं मिलेगा. नए बच्चे तो उसका स्वाद भी नहीं जान पाएंगे।
.
ये कहानी केवल मेरी नहीं है इस मिलावटी युग में हर इन्सान की यहीं करुण कहानी है. दिनभर ऑफिस में काम करके थका हारा इन्सान जब हाथों में चाय की प्याली लेकर टीवी के सामने बैठता है और फिर टीवी पर दूध में मिलावट की दिल दहला देने वाली कहानी देखकर हाथ में रखे चाय पर बार-बार उसकी नजर जाती है और वो सोचता है इसमें पड़ी दूध भी तो मिलावटी होगी...और इस तरह चाय कब ठंडी हो जाती है पता ही नहीं चलता. नाश्ते में, खाने में और न जाने कब-कब उसे मिलावट की ये कहानी कुछ भी खाने से रोक देती है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो इन्सान क्या खायेगा और क्या छोडेगा ये तय करना उसके लिए काफी मुश्किल हो जायेगा. इस दुविधा की घडी में टीवी वाले रोजाना उसे नए-नए मिलावटी उत्पाद दिखाकर और भी मुश्किल में डाल रहे हैं. अब भगवान ही भला करे आम आदमी का...जहाँ सब कुछ धीरे-धीरे मिलावटी होता जा रहा है.

Friday 18 September 2009

इकोनामी क्लास और भेड़-बकरी बनी जनता...?

इलीट क्लास से आने वाले हमारे एक मंत्री जी ने जब से विमान के इकोनोमी क्लास को भेड़-बकरी क्लास की संज्ञा दी है तब से हर जगह लोगों ने हाय-तौबा मचा रखी है। लोगों ने ऐसी प्रतिक्रिया दी है जैसे उन्होंने कोई ऐतिहासिक गलती कर दिया है, और पहली बार उन्हें भेड़-बकरी समझा गया है. जबकि ऐसा नहीं है. रोजाना की जिंदगी में उन्हें हमेशा यही संज्ञा मिलती है और देश में इससे ज्यादा उनकी कोई औकात भी नहीं है. ऐसे में अगर इलीट क्लास से आने वाले हमारे मंत्री महोदय ने उन्हें भेड़-बकरी समझ ही लिया तो इसे उस वर्ग की मानसिकता के रूप में देखना चाहिए. मतलब हमारे देश का उच्च वर्ग अपने से नीचे वाले वर्ग को कैसे देखता है इसे उस रूप में देखा जाना चाहिए. ये भेदभाव केवल उसी स्तर पर नहीं है हमारे यहाँ न्यायपालिका द्वारा इन्सान को देखने का नजरिया भी अलग-अलग है. तभी तो कई लोगों को अपनी गाड़ी से कुचलने वाले एक एलिट क्लास के नवयुवक को इसलिए जमानत पर छोड़ दिया जाता है कि उसके दादा देश के बहुत बड़े अधिकारी रह चुके हैं और उनकी इक्षा है उसे देखने की...इस दौरान इस तथ्य को भी नजरंदाज कर दिया जाता है कि उसी नैजवान के पिता पर देश की रक्षा सौदे में दलाली का मुकदमा चल रहा है. तभी तो हत्या के आरोप में जेल में बंद एक प्रसिद्ध आईपीएस अधिकारी को इसलिए जमानत दे दी जाती है ताकि वो अपनी बेटी की शादी में शरीक हो सके...क्या न्याय की ऐसी उदारता देश के आम आदमी के लिए देखने को मिल सकती है?
दूसरी बात ये भी कि इकोनोमी क्लास में चलने वाले लोग अपने से निम्न आयवर्ग के लोगों को किस रूप में देखते है. आखिर कौन चलता है इकोनोमी क्लास में. २५ रूपये में महीने भर का रेल पास जुगाड़ होने की ख़ुशी में झुमने वाले इस देश की कितनी आबादी प्लेन के इकोनोमी क्लास में चलने के काबिल है. बसों और रेल में ठूस-ठूसकर यात्रा करने वाली हमारी जनता को मंत्री महोदय के मुंह से भेड़-बकरी शब्द सुनना इसलिए भी अच्छा नहीं लगा क्योंकि जनता को मालूम है कि अगर हमारे मंत्रीजी आज एलिट हैं तो वो उसी की बदौलत. आज हमारे देश की नेता बिरादरी बिजनेस क्लास से नीचे उतर कर इकोनोमी क्लास में चलने में दिक्कत महसूस करने की आदत डाल चुकी है तो उसकी जिम्मेदार यही जनता है...वरना अगर जनता ने अपने नेता को ये बता कर रखा होता कि आपकी तक़दीर उतनी ही है जितना आप अपनी जनता को खुशहाल बना सकते हो और अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो फिर आपके लिए व्यवस्था में कोई जगह नहीं है...अगर जनता अपने नेतृत्व को ये बताने में सक्षम होती तो फिर किसी की हिम्मत नहीं होती जनता को भेड़-बकरी समझने की...

Friday 11 September 2009

...अपने-अपने भगवान!

चलो हम भी गढ़ लें
अपने भगवान और अपना अलग धर्म
हम भी ढूंढ़ लें...
खुद में कोई खूबी और गढ़ लें
अपनी अलग दुनिया!
लेकिन इसके लिए चाहिए
करोड़ों रूपये, ढेर सारा संगमरमर
और कई कोस धरती
और ऊपर से जनता का धन
खर्च करने का माद्दा भी...
चलो इसके लिए खड़ा करें
कोई सामाजिक आन्दोलन
और फिर उसका चोगा ओढ़ कर
हम भी कर सकेंगे
जनता की खून-पसीने की कमाई पर राज
और बना सकेंगे खुद को भगवान...
तो आओ मिलकर हम भी गढे
अपने-अपने धर्म, अपना-अपना भगवान!

Saturday 29 August 2009

कलयुग जाने वाला है, सतयुग आने वाला है...

कल दिवार पर लगी एक पोस्टर देखी। उसपर यही लिखा हुआ था. प्रचार था किसी बाबा का. जो सतयुग आने का सपना दिखा रहे थे. जैसे सबकुछ बदलने वाला ही हो, बस. अब राम राज्य आने ही वाला हो. ऐसे न जाने कितने सपने बेचने वाले बाबा लोग रोजाना टीवी पर दिखते रहते हैं. जिन बाबा लोगों का बाज़ार बन चुका है उन्होंने अपना खुद का टीवी चैनल खोल लिया है और जिनका उतना बाज़ार नहीं बन पाया है वे किसी और के चैनल पर दिखकर अपना काम चला ले रहे हैं. रोजाना सुबह-सुबह टीवी के इन चैनलों पर बाबा लोग और झूमते-गाते आनंदित से दिखते उनके भक्त लोग आकर आसन जमा लेते हैं और फिर चलता है धर्म का एक लम्बा सिलसिला. अब इस धर्मवाद के साथ बाज़ार भी जुड़ चुका है और इसी का नतीजा है दीवारों, बसों और जगह-जगह लगे बाबा लोगों के पोस्टर.
कल इसी से जुडी हुई एक और घटना आँखें खोलने वाली थी. मेरे एक परिचित के यहाँ बच्चा हुआ था. किसी ने उन्हें एक पंडित जी का फोन नंबर दिया. फोन पर उन बाबा से बात हुई और पूजा का मामला फिट हो गया. तय हुआ कि बाबा पूजा का सारा सामान लायेंगे और पूजा संपन्न कराएँगे और जजमान केवल तैयार होकर आ जाये. बाबा आये, उनके साथ एक अस्सिस्टेंट भी थे. बाबा अपने साथ पूजा की पूरी सामग्री लाये थे. यहाँ तक कि चलता फिरता हवनकुंड भी. बाबा ने पूजा निपटाया..अपनी फीस ली और जजमान भी इस झंझट से मुक्त हुए. दोनों ने अपनी धार्मिक जिम्मेदारी निभाई और फिर चल पड़े अपने-अपने रस्ते.

Saturday 15 August 2009

लो मन गया फिर आज़ादी का जश्न!

लो मना लिया मैंने भी अपनी आज़ादी का जश्न
हाथों में तिरंगा थामे
झूमते-गाते और नारे लगाते
बच्चों, बूढों और नौजवानों को
टीवी चैनलों पर देखकर,
राष्ट्रभक्ति के गानों को सुनकर
कर लिया मैंने भी अपना मन हल्का
और निभा ली मैंने भी अपनी जिम्मेदारी
देश और देशभक्ति की!

इस आजाद देश के
हर आजाद नागरिक की तरह
मुझे भी छू गया
मेरे सामने परोसा गया
भाषणों का पुलिंदा,
जिसमे करीने से सजाये गए थे
न जाने कितने सपने
जो मेरा देश
पिछले ६२ सालों से देखता आ रहा है
और जिन सपनों के पूरा होने की बाट जोहते
खप गयी कई पीढियां...

आज भी मेरे गाँव की नई पौध
नहीं पहुच सकी है
तकनिकी क्रांति के उजाले तक।
मिटटी की तेल के दीये की
मद्धिम रौशनी में
न्यूटन, आइंस्टाइन और गैलिलियो को
पता नहीं कबसे पढ़ती आ रही है ये पौध...


आज भी हमारे गाँव के किसान
बदहाल हैं...
दिनभर धूप और बरसात में
मरने-खपने के बाद भी...
भर-पेट भोजन
और पूरा कपड़ा आज भी चुनौती है
उनके लिए...
और उन्ही की खेती का आंकडा बेच
न जाने कितने लोग
हो गए करोड़पति
सच में यही है "इंडिया शाइनिंग"...

टीवी पर दिखने वाले
चमकते-दमकते
भारत से अलग है मेरा भारत
रोटी-कपडा और मकान के लिए
मरता-खपता भारत...
मेरा भारत... मेरा महान भारत!

Tuesday 4 August 2009

बोल तेरे पास प्लास्टिक के और कितने थैले हैं...?

खबर में तो पढ़ा था लेकिन प्रत्यक्ष में कल पहली मर्तबा दर्शन हुआ। मिठाई की दुकान पर जब मिठाई वाले ने हाथ में मिठाई का डब्बा पकडा दिया तो ख्याल आया की थैली लाना तो अपनी आदत में शुमार ही नहीं है और अब तो दिल्ली में सरकार ने प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया है सो युहीं हाथ में टांगकर ले जाना होगा। लेकिन तभी देखा दुकानदार काउंटर के बगल से धीरे से हाथ बढाकर कुछ दे रहा था...मुट्ठी में दबाये हुए था...अचानक इस तरह का व्यव्हार देखकर थोडी घबराहट हुई फिर अपनेआप को संभलकर मैंने पूछा॥ क्या है...उसने धीरे से कहा- पालीथीन...दुकान के बाहर जाकर डब्बा इसमें रख लीजियेगा...मैंने देखा थैले पर उस दुकान की पूरी पहचान लिखी हुई थी फिर उसे छुपाकर देने का क्या फायदा. इतना ही जिस दुकान में प्लास्टिक का थैला इस तरह छुपाकर दिया जा रहा था उसी दुकान में कई ऐसे उत्पाद थे जो मोटे और ज्यादा मजबूत थैलों में खुलेआम रखे और बेचे जा रहे थे...तुर्रा यह कि सरकार ने केवल प्लास्टिक के थैलों पर ही प्रतिबन्ध लगाया है.

चारो ओर ताकते जैसे-तैसे सहमे हुए घर पहुचे कि कहीं रस्ते में जांच करने वाले न मिल जाए और मुफ्त में फंस न जायें। खैर ऐसा कुछ नहीं हुआ और सड़क पर सैकडों लोग हाथों में प्लास्टिक की थैलियाँ टाँगे इधर से उधर जाते-आते दिखायी दे रहे थे। उन्हें देखकर थोडी हिम्मत बंधी...इस डर ने घर आकर भी पीछा नहीं छोड़ा...रात को बिस्तर पर पड़े कब सपनो में खो गए पता भी नहीं चला...सपने में कल सुबह की तस्वीर दिखने लगी..सुबह दफ्तर जाते वक्त प्लास्टिक के थैले में खाना पैक कर बीवी हाथ में थमाती है.. बोझिल कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं होते...घर और बाहर के बीच आकर पैर थम जाते हैं..अगर घर में वापस जाकर बताये कि बाहर प्लास्टिक की थैली लेकर जाने में डर लग रहा है तो फिर बीवी को हसने से रोकना संभव न होगा और अगर इसे लेकर बाहर गए तो पता नहीं क्या होगा. कहीं प्लास्टिक के थैले लेकर चलने के अपराध में पुलिस पकड़ कर न ले जाये और वह आतंकवादियों और अपराधियों की तरह थर्ड डिग्री का इस्तेमाल न करने लगे..कहीं प्लास्टिक के थैलों के जखीरे की तलाश में घर पर छापा पड़ गया तो २-४ पौलिथिन तो उनके हाथ लग ही जायेगा..फिर कौन बचायेगा इस बला से...पुलिसिया मार खाकर बताना ही पड़ेगा कि घर में कितने और थैले छुपा कर रखे हैं...

Thursday 23 July 2009

कौन सोचेगा देश के आम आदमी के बारे में?

आज दोपहर में टीवी न्यूज़ चैनलों पर हमारे सांसद छाये हुए थे। टीवी पर चल रहे एक कार्यक्रम सच का सामना को लेकर वे अपना विरोध जता रहे थे। उनके अनुसार इस कार्यक्रम में निहायत ही निजी सवाल पूछे जाते हैं और यह देश के सांस्कृतिक माहौल के लिए ठीक नहीं है। इतना ही नहीं इस मामले पर संसद के सभी सदस्य एकमत थे॥भले ही वे किसी भी दल के क्यूँ न हों॥जाहीर है हमारे सांसदों को देश की बड़ी फ़िक्र है...इसके कुछ ही दिन पहले देश में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमते बढ़ाई गयी. ये मसला कोई आम मसला नहीं था. इसका सीधा असर देश के हर परिवार पर होने वाला था. एक बार नहीं बल्कि रोजाना दिन भर में कई-कई बार लोगों से ये बढ़ी कीमते वसूली जानी थी. जो गाड़ियों पर चलता है उसे डीजल-पेट्रोल की बढ़ी कीमते चुकानी थी॥जो नहीं चलता उसे साग-सब्जी की ढुलाई के नाम पे ये बढ़ी हुई कीमत चुकानी थी. और भी न जाने कहाँ-कहाँ इस कीमत बढोतरी का असर हुआ ये तय कर पाना मुश्किल है...लेकिन उस मसले पर देश में विरोध का स्वर कहीं सुनाई नहीं दिया.
.
इस बढोतरी ने लोगों की थालियों को दाल से महरूम कर दिया॥चावल के साथ खाया जाने वाला दाल ९० रूपये किलो बिकने लगा। इसी बीच देश का बजट आया और पता नहीं किन-किन विभागों के नाम पर करोडों-करोड़ बाँट दिया गया..लेकिन जो लोग सब्जियां लाने बाजार जाते थे उनके लिए बजट संभालना मुश्किल हो गया. लौकी, टमाटर ३० रूपये किलो बिकने लगे...कोई भी सब्जी खरीदो १० रूपये में पाव भर से ज्यादा मिलना बंद हो गया. इसके बाद भी कोई विरोध के लिए सड़क पर नहीं उतरा...अभी चंद महिनो पहले हुए चुनाव के दौरान जनता का हितैषी बनने को बेचैन दिखने वाले हजारो चेहरे इस विपरीत समय में जनता की नज़र से ओझल थे. जनता उन्हें ढूंढ भी नहीं रही थी..अपने देश की जनता हर ५ साल पर अपने हितैषियों को देखने की आदि हो चुकी है. पेट्रोल-डीजल के दाम बढे तो देश की रीढ़ माने जाने वाले किसानों की भी शामत आ गयी. इन्द्र भगवान के भरोसे हर साल अपनी नैया पार लगाने वाले किसानों से इस बार इन्द्र भगवान ने बेवफाई क्या की...उनके तो जैसे होश फाख्ता हो गए...लेकिन राजनेता यहाँ भी चुप्प नहीं बैठे. राज्यों की सत्ता पर काबिज दलों के नेता राज्य की जनता की सहानुभूति पाने के लिए केंद्र सरकार पर बरस पड़े और केंद्र ने पल्ला झारते हुए गेंद फिर राज्यों के ऊपर फेंक दिया. बीच में असहाय जनता क्या करती...टक-टक देखते रहना ही उसके बूते की बात थी सो उसने अपना कर्तव्य पूरी शिद्दत से निभाया।
.
देश के हित में सोचने के लिए बने संसद के सदस्य रोजाना बहसों में उलझे रहे. देश-विदेश से और इन्टरनेट से जुटाए गए आंकडे रोजाना संसद में देश के आम लोगों की बदहाली का रोना रोते रहे...देशी-विदेशी मीडिया बदहाल भारत के गाँव और पानी और बिजली के लिए जूझते महानगरों की कहानी को रंगीन परदे पर दिखाती रही. संसद में कभी किसी नेता के किसी और के बारे में दिए गए विवादस्पद बयान के बारे में हंगामा हुआ तो कभी टीवी पर आ रहे कार्यक्रम के बारे में. तो कभी नेता अपनी सुरक्षा घटाने पर बवाल काटते रहे...आम जनता को भी फुर्सत कहा थी...जो शहरों में था वो अपनी नौकरी बचाने और रोज सडकों पर गुत्थम-गुत्था कर कार्यालय पहुचने की लड़ाई में लगा रहा और जो गाँव में था वो किसी भी तरह अपने खेतो में अनाज बोने के लिए धुप-बरसात में मरता-खपत रहा...

Saturday 11 July 2009

कल्लन काका, उनकी बकरी और गाँव में उनकी मूर्तियाँ!

गाँव में चौपाल सजी थी। बीच में सरपंच कल्लन काका पलथी मारे बैठे थे। अगल-बगल में मंगरू चाचा, खेदन, मंगल, श्याम समेत गाँव के सभी बड़े-बुजुर्ग और महिलाएं और बच्चे अपनी-अपनी जगह पकड़े हुए थे। कल्लन काका ने जब से सुना था कि राज्य की मुख्यमंत्री साहिबा पूरे प्रदेश भर में धडाधड अपनी और अपने प्यारे हाथी की मूर्तियाँ लगवा रही हैं तब से कल्लन काका को चैन से नींद भी नहीं आ रही थी। कल ही सपने में कल्लन काका ने देखा था ख़ुद को मंच पर बैठे हुए। फ़िर उनके नाम का अन्नाउंस होता है और कल्लन काका धीरे-धीरे मूर्ती की ओर बढ़ते हैं और फ़िर अपने ही हाथों अपनी मूर्ती का उदघाटन करते हैं। अपनी ही मूर्ती को सामने लगा देखकर और पूरे गाँव को उसे निहारते हुए देखकर कल्लन काका की आँखे भर आई. पता नहीं कब खो गए काका सपनो में और जब नींद खुली तो काकी उन्हें झकझोड़ कर उठा रही थीं। खेत में मवेशी घुस गए थे और काकी चाहती थी कि काका जाकर मवेशी भगाएं. काका क्या कहते-- कहाँ गाँव में अपनी मूर्तियाँ लगवाने की सोच रहे हैं और इधर काकी को खेतो की चिंता हुई जा रही है. काका को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन काका ने भी सोच लिया था कि अब तो पूरे गाँव में उनकी और उनकी प्यारी बकरी की मूर्ती लगकर ही रहेगी। लेकिन इसके लिए पैसा कहाँ से आयेगा? काका इससे तनिक भी बिचलित नहीं हुए और काका ने तय कर लिया गाँव के विकास के नाम पर जो फंड आता है मूर्तियाँ उसी से लगेगी। रही बात गाँव वालों को मनाने की तो उसी के लिए काका ने आज की मीटिंग बुलाई थी।
.
कल्लन काका ने पूरी गंभीरता के साथ गांववालों को संबोधित करना शुरू किया--- देखिये भाइयो और बहनों। आप लोग जानते हैं दुनिया कहाँ से कहाँ बढ़ गयी, लोग कितने माडर्न हो गए लेकिन हम वहीँ के वहीँ हैं। लेकिन अब ये ज्यादा दिनों तक बरक़रार नहीं रहेगा और अब जल्द ही हमें गाँव की तस्वीर बदलनी होगी. इसके लिए हमने रोड मैप तैयार किया है॥हाँ॥रोडमैप! भाइयो हमने फैसला किया है कि गाँव को टूरिज्म हब बनायेंगे. गाँव भर में मूर्तियाँ लगाई जाएँगी और उसे देखने के लिए लोग यहाँ आएंगे. बाहर वाले यहाँ आयेंगे और यहाँ आकर तरह-तरह की चीजों की खरीददारी करेंगे और इससे हमारी आमदनी बढेगी. अगर विदेशी लोग घुमने आने लगें तो रूपये की बात छोडो डॉलर में पैसे आने लगेंगे और हमारा गाँव मालामाल हो जायेगा।
.
काका के सामने बैठा बबलू खुद को नहीं रोक पाया और झट से सवाल कर दी-- लेकिन काका पहले से ही हमारे गाँव में इतनी मूर्तियाँ हैं अब किनकी मूर्तियाँ लगवाई जाएँगी? काका ने पूरे धैर्य का परिचय देते हुए उसका सवाल पूरा होने तक इंतजार किया और फिर बोल उठे- देख बेटा भगवान लोगों की मूर्तियाँ तो हर जगह हैं और अब राजनेताओं ने भी शहरों में अपनी मूर्तियाँ लगवानी शुरू कर दी है। लेकिन अभी गाँव के सरपंचो और मुखियाओं ने ये काम शुरू नहीं किया है। इससे पहले कि उनके दिमाग में ये आईडिया आये हमें इसकी शुरुआत अपने गाँव में कर देनी चाहिए और सबसे आगे रहते हुए अपने गाँव को टूरिज्म हब बना लेना चाहिए. गाँव के बाकी लोगों को काका की ये अंग्रेजी बात समझ में आ नहीं रही थी इसलिए सब केवल सर हिलाकर हाँ में हाँ मिलाये जा रहे थे. काका ने कहा- इसलिए मैंने फैसला किया है कि गाँव की भलाई के लिए मैं अपने ऊपर ये जिम्मेदारी लेता हूँ. मैं तैयार होता हूँ अपनी मूर्तियाँ लगवाने के लिए और तुम तैयार हो जाओ मालामाल होने के लिए. कल्लन काका का विरोधी जगतार बोलने को खडा हुआ लेकिन किसी ने उसे बोलने ही नहीं दिया. सब पर कल्लन काका के आईडिया का जादू चल चूका था।
.
अगले दिन से काम शुरू हो गया। कल्लन काका ने सुबह नाई को बुलवा भेजा। नाई भी गाँव के विकास में योगदान देने से पीछे नहीं रहना चाहता था. दोपहर तक कल्लन काका को एकदम चमकाकर विजयी भाव में घर की ओर लौटा. कल्लन काका ने उसे भी समझा दिया था कि जब गाँव में विदेशी आने लगेंगे तो उसकी कमाई भी डॉलर में होने लगेगी। वैसे सपना केवल नाई ही नहीं देख रहा था कल की मीटिंग से लौटने के बाद खेदन भी अपने किराने की दूकान के विस्तार के बारे में अपनी बीवी राधा से गहन विचार-विमर्श में जुटा था. वो सोच रहा था जब विदेशी गाँव में आने लगेंगे तब वह चावल-आटा बेचना छोड़कर पिज्जा वगैरह की दुकान खोल लेगा. बबलू भी अब काका से खूब प्रभावित लग रहा था और सोच रहा था कि जब उनका गाँव विदेशियों के घुमने लायक बन जायेगा तब वो पेप्सी की दुकान खोल लेगा और साथ में सिम कार्ड और मोबाइल रिचार्ज का काम भी शुरू कर देगा. इन सब चीजों के बिना भला यहाँ आने वाले सैलानी कैसे रह पाएंगे. बबलू ने तो दुकान का नाम भी सोच रखा था अपनी गर्लफ्रेंड के नाम पर-- "चंपा टेलिकॉम एंड ठंडा सेंटर"... साहूकार चम्पकलाल की बांछे भी खिली हुई थी. इन सब लोगों को अपना व्यापार शुरू करना होगा तो पैसा कहाँ से आयेगा. तब अंगूठा लगवाने के लिए चम्पक साहूकार के दर पर हीं सबको आना होगा न. तब बढा देंगे ब्याज का दर. खुद सब कमाएंगे डॉलर में और मुझे कुछ भी नहीं मिलेगा ऐसा कैसे हो सकता है भाई॥
.
खुद नहा-धोकर कल्लन काका ने अपनी बकरी को भी नहला दिया. आखिर काका के साथ गाँव भर में उसकी भी तो मूर्ती लगनी थी. नहा-धोकर जब काका गाँव में निकले तब उन्हें आभास हुआ कि टूरिज्म हब वाला उनका आईडिया वाकई हिट हो चूका है. काका जिधर से निकलते उधर ही लोग सलाम ठोकना शुरू कर देते. यहाँ तक कि उनके दुश्मन भी आज काका को इग्नोर नहीं कर पा रहे थे. अचानक काका के मन में एक प्रश्न उभर आया कि जब मूर्तियाँ लगने के बाद सैलानी नहीं आयेंगे तब ये गांववाले उन्हें जीने देंगे क्या. लेकिन काका इस सवाल से भी बिचलित नहीं हुए. उन्होंने तय कर लिया कि जब वक्त आयेगा तब देखा जायेगा. कह देंगे कि भाई आईडिया है फ़ैल हो गया, अब आईडिया के अन्दर घुसे थोड़े ही थे. जब बड़े नेता लोग अपनी और अपने हाथियों की मूर्तियाँ लगवाने के लिए करोडों खर्च कर सकते हैं तो काका अपनी और अपनी बकरी की मूर्तियाँ लगवाने के लिए लाखों रुपया भी खर्च नहीं कर सकते क्या...जय श्री राम की... देखा जायेगा..जो होगा. पहले मूर्तियाँ लगवाने का जुगाड़ तो किया जाये...

Wednesday 8 July 2009

प्यासा देश और पानी में डूबते उसके लोगों की कहानी..!

हमारा देश कितना बड़ा है और आबादी तो इतनी बड़ी कि मत पूछिए। एक अरब से ज्यादा तो हम सरकारी आंकडे के अनुसार ही हैं। अनाज भी हम अपने खाने के लायक उगा ही लेते हैं. रह गयी बात पानी की तो वो भी हमारे देश में कम नहीं है. अब देखिये न मुंबई नगरिया को... पूरा शहर पानी में तैर रहा है. मानसून ने दस्तक दे दी है और पूरा शहर पैंट को निचे से मोड़े और हाथ में छतरी थामे अपनी रफ्तार में दौरे जा रहा है. लेकिन इस कहानी का दूसरा पहलू भी है. मुंबई के पास डूबने के लिए पानी जरूर है लेकिन पीने के पानी की जुगाड़ करने में मुंबई वालों को नानी याद आ रही है. गली-गली और घर-घर में पानी भरी पड़ी है लेकिन पीने के लिए सरकार जो पानी देती थी उसमें ३० फीसदी की कटौती कर दी गई है। ऐसा इसलिए हुआ है क्यूंकि मुंबई को जिस झील से पानी दिया जाता था उसका जलस्तर घट चुका है. अधिकारियों का कहना है कि उनके पास सिर्फ़ अगले दो महीनों के लिए पानी बचा हुआ है और अगर मानसून अपने पूरे ज़ोर से समय पर नहीं आता तो मुंबई के लोगों के लिए पानी ही नहीं होगा. क़रीब दो करोड़ लोगों को अपनी प्यास में से ३० फीसदी कटौती करने को कहा गया है बल्कि कहा नहीं गया है कटौती कर दिया गया है. और जो सरकार करती है वही सच है क्यूंकि भारतीय शहरों के लोगों ने पहले इतना ज्यादा पानी बहा दिया है कि अब वे बूँद-बूँद के लिए सरकार पर निर्भर हैं. सरकार कहीं से भी लाये लेकिन अगर पानी लाकर पिलाती नहीं है तो फिर लोगों के पास कोई और उपाय नहीं है. मिनरल वाटर के बोतल खरीदकर पीना लोगों के लिए एक विकल्प जरूर है लेकिन उसकी भी अपनी कीमत है और सब उस पानी की कीमत नहीं अदा कर सकते.

इससे कुछ अलग कहानी है देश की राजधानी दिल्ली की. देश की राजधानी होने के नाते देशभर से यहाँ लोग आते रहे और अब इसकी आबादी भी अच्छी-खासी हो चुकी है. रहने के लिए घर का तो जुगाड़ जैसे-तैसे हो जाता है खाने का जुगाड़ भी पैसे के बल पर हो ही जाता है लेकिन पानी का क्या हो. जबतक जमीन के नीचे पानी था लोगों ने छककर इसका मजा लिया. गर्मी के मौसम में गला तर करने के साथ-साथ लोगों ने जमकर स्नान भी किया. बड़ी-बड़ी इमारतों के आगे बने फव्वारों से खूब पानी भी बहाया गया. लेकिन अब हालात बदल चुके हैं. अब इस शहर के अधिकांश इलाकों का पानी सूख चुका है या फिर है भी तो नमकीन पानी है जो पीने की बात तो छोडिये नहाने और कपडे धोने के काम भी नहीं आ सकता. शहर में कई इलाकों में पानी की आपूर्ति पाईप के जरिये होती है. जिन इलाकों में ऐसा नहीं होता वहां सप्ताह में १ या २ दिन पानी के टैंकर जाते हैं. ये दिन इन कालोनियों के लोगों के लिए किसी युद्ध के दिन से कम नहीं होता. टैंकर के आते ही डब्बे लेकर लोग घरों से ऐसे दौर लगा लेते हैं जैसे पहले किसी दुश्मन के आने की खबर सुनकर कबीले वाले लगाते थे. जिसने जितना ज्यादा पानी झटका उसका सीना उतना ज्यादा चौडा. यहाँ भी जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत काम करती है. अगर आप घर-परिवार से मजबूत हैं तो फिर आपको ज्यादा पानी लेने से कोई नहीं रोक सकता और अगर रोक ले तो फिर उसका सर फूटना पक्का.

इसी देश में बिहार जैसे राज्य भी हैं। जहाँ की अधिकांश आबादी ग्रामीण है. यहाँ पानी की कोई कमी नहीं है. हर साल राज्य के अधिकांश जिले बरसात के मौसम में बाढ़ में डूब जाते हैं. पडोसी देश नेपाल से आने वाली नदिया पानी का समंदर अपने साथ लाती है और बिहार की किस्मत पर हाथ साफ़ कर जाती है. लेकिन बिहार की इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी है. कई इलाकों में लोग बड़ी मुश्किल से पीने का पानी जुगाड़ कर पाते हैं. सिचाई के लिए पानी का जुगाड़ करना भी यहाँ के किसानों के लिए आसान काम नहीं है. राज्य के आधे जिले अपने यहाँ आने वाले पानी को रोकने के लिए लड़ते हैं तो आधे जिलों की प्यास बुझाने का कोई जरिया नहीं है और सब कुछ इन्द्र भगवान के भरोसे चलता है. अगर उन्होंने आँखे फेर ली तो फिर इन किसानों का कोई माई-बाप नहीं होता.

पानी की बहुलता के बावजूद देश के अधिकांश शहरों में पीने के पानी की हालत ऐसी ही है। लेकिन सब कुछ भगवान भरोसे ही चल रहा है. इतने तकनिकी विकास के बाद भी हमने इस बुनियादी समस्या के हल के लिए कुछ ठोस नहीं किया है. अगर हमने अपने देश की नदियों को ही आपस में जोड़ लिया होता तो देश के किसी भी इलाके में हमें पानी की कमी का सामना नहीं करना पड़ता और जिन इलाकों में पानी ज्यादा होता वहां से पानी निकाल पाने में भी हम सफल होते. तभी तो सब कुछ होते हुए भी पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्य के किसान मानसूनी बारिश का इंतज़ार कर रहे है. हम अपने लिए जब कोई नीति ही नहीं बना सकते तो फिर हमारी प्यास बुझाने विश्व बैंक और अईएमेफ़ तो नहीं आयेंगे. प्रकृति की ओर से मिली इस अनमोल धरोहर को अगर हम सहेज कर इस्तेमाल नहीं कर सकते तो फिर हमारी प्यास ऐसे ही बनी रहेगी और हम ऐसे ही आसमान में पानी की बूंदों के लिए टकटकी लगाये दिखाई देंगे.

Tuesday 7 July 2009

बजट पर हम क्या बोलें, आप ने देख ही लिया!

देश में बजट पहली बार नहीं आया है पिछले ६ दशकों से हम हर साल बजट का इन्तेज़ार करते हैं. हर बार हमारे विकास के नाम पर करोडों-करोड़ की राशि की घोषणा और उसका खर्चा दिखा दिया जाता है और हमारी बदहाली दूर करने का कोई लक्ष्य तय कर दिया जाता है. हम टीवी पर और अख़बारों में बजट पर अपनी प्रतिक्रिया देकर खुश हो लेते हैं और उसकी कटिंग काटकर अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को दिखाकर खुश होते रहते हैं. इस बार भी बजट हमारी अपेक्षाओं से अलग कहाँ रही. लेकिन हमारे देश की जनता भी..मत पूछो.. पता नहीं कब पेट भरेगा इसका. इतना कुछ कर दिया फिर भी असंतोष. करोडो-अरबो रुपया आपके विकास के लिए खर्च होंगे और अब तो गरीबी ५० फीसदी मिटाने का लक्ष्य भी तय कर दिया गया है. चलो अब तो खुश हो ले मेरे लाल. हमेशा मुहँ फुला लेते हो. हो गया न इस बार का फिर अगले साल इसी बजट फिल्म की रीमेक के साथ आएंगे हमारा दादा आपके सामने. एकदम नए कवर में लपेटकर फिर आपके सामने होगा आपका बजट..यानि की आपके विकास की योजना. तब तक के लिए अलविदा....चलो चलते-चलते एक गाना गाते हैं---कुछ न कहो...कुछ न सुनो...

Sunday 5 July 2009

बेकार की बात... बजट से काहे का एक्सपेक्टेशन भाई!

जब से बजट का समय नजदीक आया है इन मीडिया वालों ने नाक में दम कर रखा है। हर अख़बार में, हर समाचार चैनल पर एक ही राग अलापे हुए हैं॥बजट से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं एसएमएस कर बताएं। अरे अब क्या-क्या बताएं और अगर बता ही दिया तो का हो जाएगा। वैसे भी मर रहे हैं और ऐसे भी मरेंगे। दिन भर कमर-तोड़ मेहनत करके का मिलने वाला है। किसी भी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ हो जा रहा है। दिन भर खेतों में पसीना बहाते रहता हूँ और सोचता हूँ कि इस बार फसल अच्छी हो जाए तो कुछ बात बने , लेकिन कहाँ कुछ हो पा रहा है। देश में किसानों के दिन फिरेंगे, लेकिन कब फिरेंगे। इसी इंतज़ार में उमर ख़त्म होने को आई। बापू के ज़माने से ही सुनते आ रहे हैं कि देश के विकास का रास्ता गाँव से होकर ही आता है। लेकिन अब तक विकास की ये रौशनी हमारे यहाँ से होकर नहीं गुजरी।


टीवी पर जगमग शहर की दुनिया देखकर कभी-कभी मन करता है कि मैं भी भागकर शहर चला जाऊँ। वहीँ जाकर जीवन के आखिरी पल सुकून से बिताऊ। लेकिन इधर कई दिनों से शहर से आ रही ख़बर देखकर सहमा हुआ हूँ। टीवी पर कल ही देखा था बिजली-पानी की कमी ने शहर वालों की नींद हराम कर रखी है। पानी के लिए लोग आपस में लट्ठ चला रहे हैं और बिजली बिना लोग रात-रात भर सडकों पर नाईट वाक् कर रहे हैं। अरे अब आप नाईट वाक् भी नहीं समझते- अरे भाई ऐसा लोग शहरों में करते हैं, आप तो बस यूँ समझो टहल रहे हैं। हाँ तो लोग रात-रात भर घर के नीचे गलियों में टहल रहे हैं ताकि गली से गुजरती हुई कोई हवा उन्हें नसीब हो जाये और पसीने से तर-बतर उनका शरीर थोड़ा आनंद प्राप्त कर सके.


वैसे तो कई दिनों से सुन रहा हूँ कि इन्फ्लेशन माइनस में चला गया है यानी कि महंगाई दर शून्य से भी नीचे चली गई है। लेकिन बाज़ार में ऐसा कुछ नज़र तो नहीं आता। अब कल ही देश की राजधानी दिल्ली में रह रहे एक अपने रिश्तेदार से बात हो रही थी. उनकी ऐशों-आराम से चल रही जिंदगी की तारीफ करते ही वे बरस उठे. कहने लगे अमा यार कहाँ है ऐश. तुम तो गाँव के अपने घर के इर्द-गिर्द साग-शब्जी उगा कर अपना काम चला लेते हो लेकिन हमें तो बाज़ार जाना पड़ता है. पहले से ही सब्जियों के दाम आसमान छू रहे थे लेकिन इधर जब से सरकार ने पेट्रोल-डीजल के दाम बढा दिए हैं सब्जियों की ओर देखने का मन भी नहीं करता है. मन करता है कि साधू-संतों की तरह दूध-रोटी खाकर मगन रहना सीख लूँ.


पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने का जिक्र सुनकर मन तो किया कि अपना दुःख भी उनसे कह डालूं लेकिन क्या करता, उनके मन में मेरे ऐशो-आराम वाले ग्रामीण जीवन को लेकर जो गलतफहमियां थी उसे ख़त्म कर खुद को हल्का कर लेने की हिम्मत नहीं हुई। अब उनसे क्या कहता कि भाई धान की रोपाई का समय सर पर आ गया है और गाँव में नहर के पानी के आने का कोई संकेत नहीं दिख रहा है. अगर मानसून ने धोखा दे दिया तो कहाँ से लाऊंगा इतना डीजल और कैसे पटेगा मेरा खेत. पहले हीं डीजल की कीमत अपने बस से बाहर जा रही थी अब तो सरकार ने और भी महंगा कर दिया है इसे. फसल तो मुर्झायेगी हीं और इसके साथ हीं मेरी उम्मीदे भी मुरझा जायेगी.


कल ही खेत से लौटते वक्त पता नहीं कौन से मीडिया वाले थे. रोककर पूछने लगे. इस साल के बजट से आपकी क्या उम्मीदे हैं? अब क्या बताते? क्या कहते कि हमारी खेतो की सिचाई की व्यवस्था की जाये. अरे भैया हमारे पूर्वज कहते-कहते निकल लिए. क्या हो गया. अगर मैं ये कहूँ कि महंगाई पर लगाम लगायी जाये तो कहाँ होने वाला है. हाँ मंहगे होते हैं तो बीज, खाद, खेती के लिए काम आने वाले उपकरण और मजदूर. लेकिन जब इतनी मुश्किलों से तैयार कर हम फसल बाज़ार में भेजते हैं तब महंगाई काबू में आ जाती है और फिर हम वहीँ के वहीँ रह जाते हैं. खेती के हर मौसम में कुछ न कुछ कर्ज लेते हम इसी उम्मीद में जी रहे हैं कि कभी तो वह सुबह आएगी जब बापू का कहा सच हो जायेगा और विकास की कुछ रौशनी हमारे गाँव में भी बिखरेगी. तब हम भी बजट से अपनी एक्सपेक्टेशन आपको बता पाएंगे. अभी कुछ कहके अपना मजाक क्यों बनाये.

Saturday 27 June 2009

आपका टीवी केवल बुद्धू बक्सा भर नहीं है!

अगर आप ये सोचते है कि आपके घर के ड्राइंग रूम में लगा टीवी सेट बस मन बहलाने का एक जरिया भर है और ये कोई ऐसा मैटर नहीं है जिसपर हम गंभीरता से सोचे और बहस करें तो फिर आप गलत सोचते हैं। वो जमाना गया जब टीवी को बुद्धू बक्सा समझ हम इसकी गंभीरता से पल्ला झाड़ लेते थे और टीवी को खाने-पीने के बाद के एक डोज और छुट्टी के दिन का टाइमपास मान कर चलते थे. बल्कि अब टीवी एक ऐसी चीज है जिसे आपके बच्चे सबसे ज्यादा देखते हैं, जिसके साथ आपके परिवार की महिलाएं अपना पूरा दिन बिताती हैं और जिसके मार्फ़त आपको देश-दुनिया की तमाम खबरें और गतिविधियों की जानकारी मिलती है. एक ऐसा माध्यम जो आपके बच्चो को आज की दुनिया से जोड़ता है और जिनपर आपके बच्चों के लिए कई शैक्षिक कार्यक्रम भी आते हैं. जो आपके बच्चों के लिए रोल मॉडल तैयार करता है और जो आपके घर में आने वाले सामान की पसंद और नापसंद निर्धारित करता है. यानि कि टीवी आपके घर में मौजूद वह जरिया है जिससे आपके घर का भविष्य और वर्तमान जुड़ा हुआ है. इसलिए आपको बिलकुल इस बात से मतलब होना चाहिए कि आपका टीवी क्या दिखाता है वह आपके बच्चों के लिए कैसा रोल मॉडल पेश कर रहा है और उसका समाज पर क्या असर होगा. यह देखना आपके लिए उतना ही जरुरी है जितना कि यह देखना कि आपके घर में आने वाला अनाज-दूध कितना शुद्ध है, आपके बच्चे के स्कूल में कैसी पढाई होती है, आपके बच्चे का फ्रेंड-सर्किल कैसा है॥वगैरह..वगैरह.
.
टेलीविजन चैनलों से प्रसारित सामग्रियों से संबंधित संहिता यानि कि कंटेंट कोड का मुद्दा फिर नई सरकार के आने के बाद आगे बढ़ता दिख रहा है। सरकार इसे लेकर काफी गंभीर भी है लेकिन इसे आगे चलाकर लागू करा पाना काफी मुश्किल काम है. टीवी इंडस्ट्री की ओर से इसे रोकने के लिए पूरा दबाव बनाया जायेगा. उनके लिए ये मसला केवल व्यावसायिक है लेकिन सरकार के लिए ये मसला जनहीत से जुड़ा है और इसका असर काफी व्यापक हो सकता है.
.
काफी सारे अच्छे कार्यक्रमों और ख़बरों के बीच टीवी पर बहुत कुछ ऐसा भी दिखाया जा रहा है जिसे रोकना बहुत जरुरी है। समाचार चैनलों पर धार्मिक स्टोरीज के नाम पर दिखायी जा रही खबरें क्या होती हैं कुछ के शीर्षक इस प्रकार के होते हैं--फिर पड़ रहे हैं विष्णु के कदम समंदर के बाहर. युधिस्ठिर से बदला लेने को उतारू है समंदर, युधिस्ठिर के पीछे अब भी चल रहा है उनका कुत्ता, अब भी कहीं घूम रहा है अस्वस्थामा, इन्द्र से अपमान का बदला लेने वाला है समंदर॥वगैरह.वगैरह. ऐसी खबरें रोज किसी न किसी समाचार चैनल पर चलती हुई दिख जाती हैं. उनके लिए जिन फूटेज का प्रयोग किया जाता है वे टीवी पर चलने वाले किसी धार्मिक सीरियल का हिस्सा होते हैं. पारिवारिक धारावाहिकों के नाम पर न जाने टीवी पर क्या-क्या परोसा जा रहा है. घर के अन्दर चलने वाली राजनीति, परिवार के अन्दर चली जा रही कुटिल चालों और कमजोर होते आपसी विश्वास को इस कदर भयंकर रूप में सजा कर दिखाया जा रहा है कि जिन्हें परिवार नामक व्यवस्था में थोडा-बहुत विश्वास रह भी गया है वे भी इसे देखकर दांतों तले उँगलियाँ दबा लें.
.
कल ही देख रहा था भूत वाला एक सीरियल। उसमें भूत बना एक छोटा सा लड़का... जिसकी उम्र करीब ४-५ साल दिखाई जा रही है वह कहता है कि उसे प्यास लगी है वह खून पिएगा. अब बताओ ५ साल के एक बच्चे से ये डायलाग बोलवाने का क्या मतलब है. क्या मकसद है इन कार्यक्रमों को चलाने का. यही न कि टीवी वाले लोगों के अन्दर व्याप्त डर को बेच रहे हैं. जासूसी सीरियल्स के नाम पर अपराध करने और उससे बचने के नए-नए तरीके रोज सिखाये जा रहे हैं. व्यावसायिकता के अंध-अनुकरण में फंसे टीवी चैनल वाले पश्चिमी देशों में बनी सी-ग्रेड की फिल्मों का हिंदी अनुवाद कर उन्हें दिखाने लगे हैं. उनके अनुवाद की भाषा और उन फिल्मों में दिखाए गए दृश्य हमारे समाज में किस हद तक दिखाए जाने चाहिए इसकी फ़िक्र किसी को नहीं है. भाषा और दृश्यों में फूहड़ता लिए इन फिल्मों को किस हद तक काट-छाँट कर यहाँ प्रस्तुत किया जाना चाहिए इसे भी देखने की जरुरत है.
.
हम माने या न माने लेकिन टीवी एक ऐसा मसला है जिसपर हमें, आपको और हम सब को सोचना पड़ेगा और पूरी गंभीरता के साथ. क्यूंकि ये अकेला ऐसा जरिया है जो देश-दुनिया की अच्छी-बुरी बातों को आपके घर के अन्दर तक ले आता है. आपके घर के लोगों को सूचनाओं, रहन-सहन और जीने के तौर-तरीके सिखाने में भी टीवी का स्थान अव्वल है. फिर क्यूँ नहीं हमें इसपर गंभीरता के साथ सोचना चाहिए? फिर समाज को क्यूँ नहीं इस बात पर नज़र रखनी चाहिए कि टीवी पर क्या दिखाया जा रहा है.

Thursday 25 June 2009

ऐसे तो नहीं मिटेगी गरीबी...हाँ जब तक बिके बेच लो!

ये कोई नयी बात थोड़े ही है, गरीबी तो हमेशा ही बिकती है। राजनीति और फिल्म वाले इसे सबसे सही तरीके से बेचते हैं। एक जमाने में इंदिरा जी ने जमकर गरीबी बेची थी। उन्होंने बस इतना ही कहा था -गरीबी हटाओ और लोगों ने तुरंत विपक्ष को हटा दिया और इंदिरा जी को जीता दिया। चलो वो तो पुरानी बात है। इधर गरीबी की कद्र समझी फिल्मकारों ने. एक ब्रितानी फिल्मकार ने झुग्गी-झोपडी की गरीबी को सजा-धजा कर बाज़ार में उतर दिया और इसके कद्रदानों ने डॉलर में इसकी कमाई कराइ और कमाई को बिलियन में पंहुचा दिया. वैसे अपने यहाँ राजनीती में इस आइटम की खूब डिमांड है. चुनाव लड़ने वाला बंदा भले ही कितना अमीर हो, पर वह यह कभी नहीं कहता कि मैं अमीरों के लिए यह करूंगा और वह करूंगा। वह कहता है कि मैं तो सब कुछ गरीबों के लिए ही करूंगा जी। क्योंकि चुनाव में अमीरी नहीं गरीबी बिकती है। सरकारें देशी-विदेशी हर तरह के सेठों के लिए पता नहीं क्या-क्या करती हैं। पर वह कहती यही है कि हमने तो सब कुछ गरीबों के लिए ही किया। यह योजना भी गरीबों के लिए है और वह योजना भी गरीबों के लिए है।
.
पार्टियों के घोषणापत्रों में अमीरी का जिक्र तक नहीं होता। यहाँ भी गरीबी को ही बेचा जाता है। गरीबों के लिए शिक्षा होगी, रोजगार होगा, गरीबों के लिए मकान होंगे, प्लॉट होंगे। लेकिन क्या देश के गरीब को ये सब मिला है। अजी नहीं॥क्यूंकि ये सिर्फ बिकाऊ आइटम है और बिकने वाली चीज सिर्फ बाज़ार में ही अच्छी लगती है.
.
कवि दीपक भारतदीप की एक कविता के कुछ अंश आपके लिए रख रहा हूँ---
"शायद बनाने वाले ने गरीब
बनाये इसलिए कि
अमीरों के काम आ सकें
और उनकी गरीबी पर
दिखाई हमदर्दी पर
बुद्धिमान अपना बाजार सजा सकें
इसलिए गरीबी हटाओ के नारे से
गूंजता है धरती और आकाश
गरीब होता दर-ब-दर
पर वह अपना वजूद नहीं खोती!"
.
ये कविता हमारे आज की एक सच्चाई है। एक आंकड़े के अनुसार आज भी हमारे देश की करीब ७० फीसदी जनता रोजाना ५० रूपये से भी कम कमाती है. हालाँकि जिन लोगों ने भारत के गाँव और वहां के लोगों की असल जिंदगी को देखा है उन्हें इस आंकड़े पर कभी भरोसा नहीं होगा. क्यूंकि गरीबों को घर देने के तमाम योजनाओं और दावों के बाद भी मेरे गाँव की गरीब बस्ती के अधिकांश घर अब भी घास-फूस के ही हैं. रोजगार देने के तमाम दावो के बीच आज भी ग्रामीण इलाकों से आने वाली रेल गाडियाँ वैसे ही भर-भर कर शहरों की ओर आ रही हैं. शहर से चलकर रोजगार गारंटी योजना गाँव में तो पहुँच गयी लेकिन लोगों को गाँव से शहर आने से रोकने में कामयाब नहीं हो सकी. इस योजना के तहत जो काम बांटे गए वे या तो सड़क निर्माण में मजदूरी करनी थी या फिर इसी तरह का कोई काम. गाँव के पढ़े-लिखे लोगों के लिए शिक्षा मित्र जैसी योजनाये शुरू की गई लेकिन इसे बाटने के काम में लगे लोगों ने इसकी बोली लगानी शुरू कर दी. जिन्हें नौकरी मिली भी उन्हें सरकारी चपरासी से भी कम वेतन पर रखा गया. अगर शिक्षा का अलख जगाने वाले लोग खुद को चपरासी से भी गया-गुजरा समझेंगे तो किस मनोबल से वे अगली पीढी को साक्षर बनाने के लिए काम कर सकेंगे इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं.
.
हमारे यहाँ एक राज्य है उत्तर प्रदेश। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक देश में जो भी सरकार बनी है उसमें इस प्रदेश का हमेशा दबदबा रहा है. कई प्रधानमंत्री और असंख्य मंत्री दिए इस प्रदेश ने देश को. लेकिन अब भी इस प्रदेश के एक इलाके बुंदेलखंड से गरीबी और भूख से हुई मौतों की करुण कहानी सामने आती रहती है. हमारे देश की मीडिया ने गरीबी के लिए कालाहांडी को एक प्रतिक के रूप में सामने रखा. करीब १० साल पहले की बात है जब कालाहांडी में भूख हुई मौत ने पूरी दुनिया की मीडिया में अपनी जगह बनाई. लेकिन क्या इन दस सालों में इस व्यवस्था ने कालाहांडी की तस्वीर बदलने के लिए कुछ किया. उल्टे इस देश में रोज नए-नए कालाहांडी पैदा हो रहे हैं.
.
हम बात कर रहे थे उत्तर प्रदेश की। वहां की स्थानीय सरकार से जुड़ी एक खबर आज एक अख़बार में छपी हुई थी. गरीबो और पिछडों के कल्याण के नाम पर सत्ता में आई यहाँ की सरकार और इसकी सुप्रीमो ने राज्य की राजधानी में जमकर मूर्तियाँ लगवाया. पार्टी के संस्थापक, वर्तमान अध्यक्ष या पार्टी सुप्रीमो कहें और पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तियाँ लगाने के नाम पर इस राज्य में करोडों रुपया खर्च किया गया. पहले वर्णित दो महानुभावों की मूर्तियाँ लगवाने में करीब 6.68 करोड़ रुपये का खर्च आया. तीसरे महानुभाव यानि की पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी जी की संगमरमर की ६० मूर्तियों पर भी करीब ५२ करोड़ रुपया खर्च किया गया. विकास के प्रति संवेदनशीलता के साथ लगे हुए इस प्रदेश ने पूरी म्हणत से काम किया है. प्रदेश के सांस्कृतिक विभाग का साल 2009-10 का बजट बताता है कि 2008-09 में विभाग ने 'महान नेताओं' की प्रतिमाओं को बनवाने के लिए 194 करोड़ रुपये से भी ज्यादा आवंटित किए हैं। और ये सब पैसा खर्च किया जा चुका है।
.
वैसे ये पैसा गरीबी ख़तम करने पर भी खर्च हो सकता था. क्यूंकि शासन सत्ता का पहला काम ही होना चाहिए कि अपने हर नागरिक को बेसिक सुविधाएँ दे. लेकिन ये कहाँ हो पाया है. मूर्तियाँ नहीं लगेंगी तो गरीब पूजा किसकी करेगा और अगर गरीब ही ख़तम हो गए तो बिकेगा क्या.

Wednesday 24 June 2009

लो भई, फिर आ गया स्वयंवर का जमाना!

किसी महान आदमी ने कहा था कि इतिहास खुद को दोहराता है। हिंदुस्तान की सरजमीं पर इतिहास एक बार फिर पूरा एक चक्कर लगाकर वहीँ पहुँचने वाला है जहाँ से उसने प्राचीन काल में अपनी यात्रा शुरू की थी. हम बात कर रहे हैं स्वयंवर प्रथा की जिसे आर्यों ने शुरू किया था और जिसके बल पर महिलावादी लोग आर्य संस्कृति को महिला अधिकारों के मामले में स्वर्णकाल ठहराते नहीं थकते. चलिए इससे पहले कि हम मुद्दे से भटके... आ जाते हैं अपने मूल मुद्दे "स्वयंवर" पर.
.

जहाँ तक मुझे याद है तो हमने कभी स्वयंवर नाम की किसी वस्तु को नहीं देखा। वो तो बचपन में रामायण और महाभारत सीरियल में देखकर जानकारी मिली थी कि स्वयंवर एक प्रकार की विवाह की विधि है जिसमें लड़की अपने लिए दुल्हे का चयन लाइन में खड़े असंख्य लड़कों (लड़के भी कोई ऐरे-गैरे नहीं बल्कि सर्वगुन्संपन्न हुआ करते थे) में से करती है. प्राचीन काल में ऐसा करने का मौका केवल बड़े राजा-महाराजाओं की बेटियों को ही मिलता था. फिर जैसा कि टीवी सीरियल्स के माध्यम से जान सका हूँ- कि मध्ययुग में राजकुमारी संयोगिता के लिए भी स्वयंवर रचा गया. आगे चलकर विवाह के लिए तमाम तरह के नए तरीके प्रचलन में आ गए और फिर स्वयंवर नामक सिस्टम आउट ऑफ़ फैशन हो गया.

.

फिर आजाद भारत में विवाह नामक पध्द्ध्ती ने नया रूप लिया। उस दौर की फिल्मों से पता चलता है कि शादियों के लिए लड़के के घर वाले लड़की देखने जाते थे और लड़की की तो बात ही छोड़िये लड़का तक अपनी शादी की बात पर शरमा जाता था. तब के मां-बाप बड़े शान से कहा करते थे अजी लड़के-लड़की से क्या पूछना जब हमने हाँ कर दी तो वे ना थोड़े ही कहेंगे. लेकिन आगे के दशकों में मां-बाप की यही स्थिति नहीं रही. लड़के बोल्ड हुए और उन्होंने शादी के लिए लड़की देखने का बोझ मां-बाप के कंधो से उतारकर खुद अपने ऊपर ले लिया. कुछ समय तक मां-बाप निर्णय लेने की अपनी शक्ति छीन जाने की बात ये कहकर छुपाते रहे की भई पढ़ा-लिखा लड़का है लड़की के मामले में एक बार उसकी भी राय ले ली जाये. लड़कों के बाद बोल्ड होने की बारी थी लड़कियों की. शहरी लड़कियों ने इस मामले में अग्रदूत की भूमिका निभाई और आत्मनिर्भरता के साथ ही लड़कियों ने शादी के मामले में अपनी राय को दबाना छोड़ दिया. इसका असर टीवी के माध्यम से आम घरों में भी पहुंचा. वहां भी अब लड़कियों से उनके होने वाले रिश्तों के बारे में राय ली जाने लगी. २१वी सदी शुरू होते-होते समाज के एलिट वर्ग ने शादी-व्याह के मामले में काफी हद तक पश्चिमी समाज के तौर-तरीको को आत्मसात कर लिया था. इस समाज के लिए शादी-व्याह और तलाक़ तक एक ही सिक्के के दो पहलू बन चुके थे. लेकिन जैसा की प्राचीन काल में स्वयंवर जैसी बोल्ड प्रथा केवल उच्च यानि की एलिट वर्ग तक ही सिमित थी उसी तरह अब भी मध्य वर्ग शादी-व्याह को लेकर काफी प्राचीन मान्यताओं को जारी रखे हुए था. शादी-व्याह उसके लिए अब भी एक धार्मिक रीति-रिवाज से जुडी हुई एक प्रथा थी और उसे जीवन भर निबाहना उसकी जिम्मेदारी थी.

.

वक्त अपना कदम आगे बढ़ता है और इतिहास एक करवट लेता है. एक बड़े स्वयंवर की तैयारी शुरू होती है. हमेशा ख़बरों में रहने वाली एक टीवी अदाकारा इसकी जिम्मेदारी लेकर आगे आती है. स्वयंवर में उसके हाथों अपना वरन करवाने को उत्सुक लोग सामने आने लगते हैं. लेकिन अब का समय प्राचीन काल जैसा नहीं है और बदले हुए समय के अनुसार लोग इसे व्यावसायिक नज़रिए से देखते हैं. वैसे ये गलत भी नहीं है. ऐसे समय में जब एलिट समाज के कुछ लोग बच्चे के जन्म से लेकर मौत तक को ऑनकैमरा करना पसंद करने लगे हैं तो स्वयंवर जैसी अद्भूत चीज को लेकर ऐसा प्रयोग क्यूँ नहीं किया जाये. जल्द ही ये स्वयंवर टीवी के परदे के माध्यम से लोगों के ड्राइंगरूम तक पहुँचने वाला है और लोग उत्सुकता में इसे देखेंगे जरूर. लेकिन ये भी सच है कि लोग अभी भी इस असमंजस में हैं कि क्या ये सच्ची में होने वाला है. अब कल क्या होने वाला है ये तो कोई नहीं बता सकता लेकिन इतिहास की इस करवट को देखने के लिए कुछ इंतजार करना होगा...दिल थाम के रहिये और देखिये-- नयी बोतल में प्रस्तुत पुरानी शराब को...

Tuesday 23 June 2009

लो देख लो नटवरलालजी की अगली पीढी को!

अब आप ये मत पूछिये कि ये नटवरलालजी कौन थे। नटवरलालजी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. नटवरलालजी की गिनती हमारे देश के प्रमुख ठगों में होती है। बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गाँव में जन्में नटवरलालजी ने अपने करिश्माई दिमाग की बदौलत से वर्षों तक बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली की सरकारों को परेशान रखा। अब इनके किस्से सुनाने लगूंगा तो बहुत समय लग जायेगा. इनके बारे में बस इतना जान लीजिये कि इन्होने कभी हथियार नहीं उठाया और अहिंसा के रस्ते पर चलते हुए इन्होने ठगी के बड़े-बड़े रिकॉर्ड बनाये. छोटे-छोटे सौदों से लेकर इन्होने कइयो को ताजमहल तक बेचा. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वे देश के एक ऐसे रतन थे जिनकी काबिलियत को कभी देश ने पहचाना नहीं वरना आज उनका नाम देश के महान लोगों में शुमार होता. नटवरलालजी ने भी कभी मोह-माया को गले नहीं लगाया नहीं तो आज उनका नाम देश के चमकते हुए राजनीतिक सितारों में जरूर शामिल होता. अब नटवरलालजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि उनकी सोच मर गई है. नई पीढी ने अपना काम संभाल लिया है और उनके पदचिन्हों पर चलकर देश और समाज में अपना नाम कर रही है.
.
अजी अब भी नहीं समझे। यही तो कमी है अपने देश में. महान लोगों को समझने में देर करते हैं हम अक्सर. हालाँकि देश में ऐसे लोगों की कमी भी नहीं है जिन्होंने इन महानुभावों की कदर पहले ही समझ ली थी लेकिन ये अलग बात है कि उन्होंने सबको इनके बारे में बताया नहीं था. अब देखो न हमें अब जाकर पता चल रहा है कि अपने देश में अशोक जडेजा जी, सुभाष अगरवाल जी, रणवीर सिंह खर्ब जी, बालकिशन मलिक जी, गुरमीत सिंह जी और नवीन शर्मा जी जैसे लोग भी रहते हैं. जिन्होंने देश को विकसित बनाने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इन्होने नटवरलालजी के नक्शेकदम पर चलते हुए अहिंसा का दामन कभी नहीं छोडा और पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब के कहे अनुसार लोगों के सपने की उड़ान को पंख देने के लिए अपना भेजा खपाया. अब आप ही बताओ अपने देश में है कोई सिस्टम जो लोगों को उनकी राशि चंद महीनों में दुगुना और तिगुना करने की जहमत उठता. लेकिन इन लोगों ने अपना फर्ज पूरा किया और ऐसे-ऐसे स्कीम बनाये जिनमे लोगों ने जमकर पैसे लगाये और वो भी ऐसे कि पड़ोसी तक को कानो-कान खबर न हो. देश में बेरोजगारी की समस्या को ख़त्म करने के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इन महान लोगों ने अपने एजेंट भर्ती किये ताकि देश के लोगों को रोजगार मिल सके. इन एजेंटों ने भी इन्हें निराश नहीं किया. एक-एक महाठग भाई लोगों ने कुछ ही महीनो के अन्दर ३००-४०० करोड़ तक के स्कीम बेच डाले.
.
लेकिन इसे कहते हैं देश की ख़राब किस्मत. अब इनपर भरोसा करने वाले लोग थोडी जल्दबाजी कर गए वरना इन लोगों ने देश के लिए काफी कुछ सोच रखा था. जिस रफ्तार से ये देश का पैसा दो-गुना--चौगुना कर रहे थे उस हिसाब से २०२० तो बहुत देर था अगले कुछ सालों में ही देश महाशक्ति बन जाता और ये जो आमिर बने घूमते हैं न पश्चिमी देश वहां के आर्थिक विशेषग्य भारत भ्रमण पर आने लगते यहाँ के ठग बिरादरी की आर्थिक नीतियों के अध्ययन के लिए. हम थोडी सी हड़बड़ी के कारण विकसित बनने के इस मौके से चूक गए...

Tuesday 16 June 2009

मिशन काहिरा और ओबामा का नज़रिया...!

लीजिये इस्राइल ने अमेरिका के अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा द्वारा फलिस्तीन-इस्राइल विवाद के हल के लिए तैयार किये गए रोड मैप का जवाब दे दिया। इस्राइल ने दुनिया के सामने एकतरफा ऐलान कर दिया कि फलिस्तीन राष्ट्र का गठन स्वीकार किया जा सकता है बशर्ते कि उसके साथ सेना न हो, उसका अपने वायुक्षेत्र पर नियंत्रण न हो, किसी तरह की हथियारों की तस्करी संभव न हो. यरुसलम हर हाल में इस्राइल की राजधानी होगी और बस्तियों में कोई बदलाव नहीं होगा तथा शरणार्थियों के मुद्दे पर कोई बात नहीं होगी.
.
उधर एक हफ्ते पहले काहिरा में मुसलमानों और अमेरिका के बीच दशकों से परवान चढ़ चुकी नफरत की दिवार गिराने की कोशिश में मानवता, कुरान, सभ्यता और न जाने किन-किन चीजों की दुहाई देने वाले अश्वेत राष्ट्रपति को इस्राइल के इस बयान में इतनी सच्ची नजर आई कि उन्होंने इस्राइल के इस रुख को आगे बढ़ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बता डाला। उन्होंने कहा कि ये समाधान इस्राइल की सुरक्षा और फलिस्तीन की एक राष्ट्र की जायज आकांक्षा को सुनिश्चित करता है. इस बयान के बाद अश्वेत बहादुर का असली चेहरा भी सामने आ गया और अंकारा से शुरू की गई उनकी ये मुहीम काहिरा में अपना रंग दिखा दी. उन्होंने यहूदियों को ये साफ़ सन्देश दिया कि वो मुसलमानों को लाख पुचकारते रहे लेकिन वो खाटी सोच वाले ही हैं जिससे अमेरिका और यहूदियों को अलग नहीं किया जा सकता. चाहे अमेरिकी यहूदी एक बार नहीं सौ सौ बार अमेरिका को आर्थिक मंदी के दलदल में धकेल दें.
.
बदलाव कि सीढ़ी पर चढ़कर सत्ता के सिंहासन पर पहुँचने वाले ओबामा ने आते ही संकेत दे दिया कि वह परिवर्तन सिर्फ देसी मामलों में ही नहीं विदेशी नीति में भी चाहते हैं। उन्होंने मुस्लिम दुनिया में बदलाव लाने को प्राथमिकता देते हुए इसलामपरस्त और धर्मनिरपेक्षवाद का अखाडा बने तुर्की की संसद को संबोधित किया. उन्होंने तुर्की के राष्ट्रपति, जनता, तुर्की की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की भूरी-भूरी प्रशंसा की और साथ हीं दुनिया से जुड़े कई अहम् मुद्दे पर बेबाकी से अपने विचार रखे. जाहीर है कि यहाँ तुर्की की सीमा से लगे दुनिया के सबसे पुराने और गंभीर फलिस्तीन-इस्राइल विवाद को कैसे भूल सकते हैं. उन्होंने इस मसले के हल के लिए बुश द्वारा तैयार किये गए रोडमैप अनापोलिस को पुरजोर तरीके से लागू करने कि वकालत की.
.
बदलाव के इस झंडे को दूसरी बार उन्होंने काहिरा विश्वविद्यालय में गाड़ना बेहतर समझा। क्यूंकि फलिस्तीन-इस्राइल विवादित मुद्दे की सीमा काहिरा को भी छूती हैं. जहाँ दुनिया को सन्देश देने के साथ साथ इस्राइल को धमाकेदार आवाज़ में अपने रोड मैप की जानकारी दी जा सकती थी. अपने इस ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने ६ बिन्दुओं पर प्रकाश डाला जो अमेरिका और मुसलमानों के बीच खाई का कारण बने हुए हैं. उन्होंने इस मसले को हल करने के लिए एक-दूसरे को समझने तथा अपनी गलतियों को अहसास करने पर बल दिया. उन्होंने दोद्नो समुदायों से पुरानी बातें भूल कर नया अध्याय लिखने का आह्वान किया. हालांकि नया अध्याय लिखने और बदलाव जानकारी बात करने वाले ओबामा ने दुनिया के सबसे गंभीर मुद्दे को पौराणिक परिवेश को सामने रखकर संबोधित किया. उन्होंने कहा कि इस जमीन पर यहूदी राष्ट्र की स्थापना जानकारी बुनियाद इतिहास में छुपी है इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. लेकिन ओबामा बहादुर को फलिस्तीनी अरब(जो मुस्लमान नहीं हैं) के इतिहास के बारे में या तो पता नहीं है या तो यहूदी दोस्ती में सच्चाई कहने से भाग रहे हैं. उन्होंने फलिस्तीनी शरणार्थियों की रोजमर्रा की परेशानियों के लिए इस्राइल को जिम्मेदार तो ठहराया लेकिन इसका हल क्या है इसपर कुछ भी कहने से परहेज किया. उन्होंने हमास जिसको वहां जानकारी जनता का पूरा समर्थन हासिल है लेकिन अमेरिका उसे आतंकवादी संगठन के आलावा कुछ मानने को तैयार नहीं है. उसे भी ये सन्देश देना नहीं भूले कि हमास जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझे?ओबामा ने इस्राइल और फलिस्तीन के लिए अलग-अलग राष्ट्र की स्थापना की जोरदार ढंग से वकालत की लेकिन यह कैसे संभव है कि इसपे चुप्पी साधे रहे. अंकारा में अनापोलिस की दुहाई देने वाले ओबामा ने काहिरा में इसका जिक्र भी करना उचित भी समझा.
.
ओबामा ने अपने ऐतिहासिक भाषण में इरान के परमाणु कार्यक्रम पर चिंता जताई और कहा कि अगर इसे रोका नहीं गया तो क्षेत्र में परमाणु हथियार बनाने की होड़ लग जायेगी। कुछ हफ्ते पहले इस्राइल के पास २०० परमाणु बम है का खुलासा करके पूरी दुनिया को चौंका देने वाले ओबामा प्रशासन ने यहाँ इस्राइल को नसीहत देना तो दूर की बात उसपर मुंह खोलना भी मुनासिब नहीं समझा.
.
इन बातों से साबित होता है कि मुसलं दुनिया और अमेरिका के बीच दोस्ती बढ़ने के इस अभियान की आड़ में ओबामा महाराज यहूदी राज्य स्थापित करने की मुहीम छेड़ राखी है वर्ना कोई भी इमानदार आदमी नेतान्याहू के एकतरफा बयान को इतने जोरदार ढंग से स्वागत नहीं करता। परिवर्तन का नारा देने वाले इस नेता भी मानवाधिकार के इस मुद्दे को धार्मिक चश्मे से ही देखने की कोशिश की. पूरी दुनिया को मानवधिकार का सबक सिखाने वाला अमेरिका जिस तरह से अबतक इस मुद्दे को धार्मिक दृष्टिकोण से देखता रहा है ठीक उसी अंदाज से ओबामा भी देख रहे हैं. लिहाजा उनकी ईमानदारी पर सवालिया निशान उठाना स्वाभाविक है और ये सही है कि मुस्लिम देशों में आज भारत, अमेरिका जैसी धार्मिक आज़ादी है और न ही विचार व्यक्त करने कि अनुमति. इसपर ओबामा द्वारा सुझाई गई बातों पर मुसलीम शासकों को संजीदगी से गौर करना होगा. आखिर दूसरों से अधिकार मांगने वाले मुस्लिम देश अपने देश के दूसरे मजहब के लोगों के साथ वो व्यवहार क्यूँ नहीं करते हैं जैसा इसलाम में बताया गया है.-----यहाँ ओबामा साहब आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि आपने कहा था कि ताली एक हाथ से नहीं बजती लेकिन आपने नेतान्याहू के बयान को बेसमझे समर्थन देकर जिस पहल की शुरुआत की थी शायद उसका गला ही घोंट दिया.
-------------------
लेखक: अजवर सिद्दीकी
(लेखक युवा पत्रकार हैं और मुस्लिम जगत में हो रहे परिवर्तन पर पैनी निगाह रखते हैं)
-------------------

Monday 15 June 2009

मीडिया और चाँद-फिजा के तराने..!

मीडिया की बांछे खिल गई है खासकर टीवी चैनल वालों की... पता है क्यूँ... चाँद मोहम्मद फिर सामने आ गए हैं। फिर उन्हें फिजा से किये गए प्यार के वादे याद आ गए हैं और आँखों में आंसू और होंठों पे प्यार का तराना लेकर फिर से वे फिजा के दरबार में हाजिरी लगाने पहुँच चुके हैं. कहानी कुछ ऐसी है कि एक हुआ करते थे चंद्रमोहन. वे कभी हरियाणा जैसे संपन्न राज्य के उपमुख्यमंत्री हुआ करते थे. राज्य के एक बड़े रसूख वाले परिवार के जिम्मेदार मेंबर भी. बीवी-बच्चों वाले एक जिम्मेदार इन्सान भी. फिर उन्हें प्यार हो गया. अचानक वे गायब हो गए और फिर जब प्रकट हुए तो वे चन्द्रमोहन से चाँद मोहम्मद हो चुके थे. धर्म तो उन्होंने बदल ही लिया उपमुख्यमंत्री की कुर्सी भी उन्हें गंवानी पड़ी.
.
मीडिया ने उन्हें खूब बेचा। जब चन्द्रमोहन से चाँद मोहम्मद बनकर सामने प्रकट हुए थे तब उन्होंने देश की राजधानी दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस भी बुलवाया था. तब चाँद मोहम्मद और उनके प्यार में अनुराधा बाली से फिजा बनने वाली उनकी प्रेमिका दोनों ने देश के सामने प्यार पर एक अच्छा-खासा लेक्चर भी दिया था. अख़बारों में उनके खूब फोटो छपे और टीवी चैनल वालों ने तो पूरे सप्ताह भर उन्हें बेचा. उन्हें एकदम फ्रेश लव गुरु जो मिल गया था.
.
फिर चाँद मोह्हमद की आंखे खुल गयी और उन्होंने अपने परिवार में लौट कर फिजा को मोबाइल पर तलाक दे दिया। मीडिया ने फिर उन्हें बेचा. टीवी पर चल-चल कर उनके तराने लोगों को ड्राइंग रूम में गुदगुदाते रहे, लोगों ने खूब इनपर चर्चा की. मामला ख़त्म हो गया. चाँद मोहम्मद ने फिर परिवार में वापसी कर ली और फिजा ने भी जिंदगी को फिर से नई शुरुआत देने की कोशिशे शुरू कर दी. लेकिन ये कहानी यही ख़त्म नहीं होनी थी.
.
लेकिन इस दौरान बहुत कुछ बदल चुका था. जिस फिजा को कल तक कोई नहीं जानता था वो फिजा एक अंतर्राष्ट्रीय रियलिटी शो में भाग लेने की तैयारिओं में लगी थी. सावन आने में अभी वक्त था लेकिन बरसात के पानी ने इसी दौरान अपना रंग दिखाया. चाँद मोह्हमद के दिल में फिर से प्यार के तराने बजने लगे. अचानक एक दिन सुबह-सुबह उठकर चाँद मोह्हमद पहुँच गए फिजा के घर. बार-बार माफ़ी मांगने के बाद भी फिजा का दिल नहीं पसीझा. चाँद मोह्हमद को मीडिया वालों को खबर करनी पड़ी. मीडिया के सामने उन्हें कहना पड़ा कि भाई माफ़ कर दो अब नहीं होगी ऐसी गलती. लेकिन प्यार में धोखा खाई फिजा ने नहीं माना. दिखा दिया अंगूठा और कहा कि सोचकर बताउंगी...मीडिया को मसाला मिल गया था. फिर दोनों छा गए ख़बरों में...अभी ये कहानी आगे जारी रहेगी...ख़बरों का ये सिलसिला अभी थमने वाला नहीं है...मीडिया को अभी ना जाने कितने मटुकनाथ और चाँद मोहम्मद मिलते रहेंगे और दुकानदारी चलती रहेगी...भारत विविधताओं का देश है यहाँ ऐसे सपूत हमेशा जन्म लेते रहेंगे...यहाँ कि मीडिया के लिए ख़बरों का अकाल कभी नहीं हो सकता...अगर हुआ भी तो ये बेमौसम बिकने वाले खबरिया आइटम हैं...मीडिया के वीडियो लाइब्रेरी में इन्हें खूब संजो के रखा गया है...जब ख़बरों जा अकाल होगा तब इन्हें निकाल कर मिर्च-मसाले के साथ बेच लिया जायेगा.

Sunday 14 June 2009

सिस्टम की चील-पों और चाय वाला छोटू...

पूरी दुनिया ने शुक्रवार को बाल मजदूर निषेध दिवस मनाया। मीडिया में दिन-भर नूरा-कुश्ती चलती रही. देश भर से बाल-दिवस मनाने के लिए सज-धज कर घर से निकले समाजसेवी लोग और इस मौके पर जगह-जगह आयोजित समारोहों में भाषण देने वाले नेताजी लोग खूब दिखे. इनके फूटेज और बाईट स्पेशल इफेक्ट और म्यूजिक के साथ-साथ सजाकर दिन भर टीवी के परदे पर दीखते रहे. इस दिन की तैयारी में सबको अपना हिस्सा देना था इसलिए एनजीओ वालों ने अपना कर्तव्य निभाते हुए कई जगहों पर काम करने वाले बाल मजदूरों की खबर पुलिस को दे दी और पुलिस वालों ने भी इस दिन अपना कर्तव्य निभाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. कई जगह छापा मारा गया और बाल मजदूर निषेध के नाम पर कई बच्चो को मुक्त करा लिया गया. मीडिया ने इस दिन के लिए कई विशेष स्टोरी बनाके रखी थी. बेबसी-दर्द-मजबूरी-दास्ताँ जैसे कई भारी-भरकम शब्दों और बेबस चेहरों के साथ टीवी चैनलों ने भी इस दिन को खूब सलीके से मनाया. अखबार वालों ने काम करने वाले बच्चों की तस्वीर एक दिन पहले ही खींचकर रख दिया था ताकि इस दिन उनके अख़बार के पहले पन्ने किसी अच्छे से कैप्शन के साथ ब्लैक एंड व्हाइट स्टाइल में ये तस्वीर छप सके. सब मुस्तैद थे और सबने बाल मजदूर दिवस मनाने के लिए अपना-अपना कोटा ठीक तरीके से पूरा किया।
.
बच्चों को काम करने से रोकने की इस मुहीम में पूरा सिस्टम एकजूट था। इसका असर मेरे पड़ोस की चाय की दुकान पर भी दिखा. एक दिन पहले जब शाम को मैं चाय की दुकान पर गया तो वहां छोटू को न देखकर मैंने उसके बारे में पूछ डाला. दुकान मालिक ने धीरे से कहा सर जी जहाँ-तहां छापे पड़ें हैं और कई बच्चों को ले गए वे लोग. मैंने बेचारे को २ दिनों की छुट्टी दे रखी है. बेचारा गरीब परिवार से है और इसी काम के सहारे अपना व अपनी माँ का पेट पालता है अब कौन उसे भी और खुद को समस्या में डाले इसलिए मैंने उसे २ दिन के लिए छुट्टी ही दे दी. करीब १०-११ साल के छोटू का चेहरा मेरे जेहन में अचानक उभर आया. रोज आते-जाते न जाने कई बार दिख जाता था. टीवी और अख़बारों में बाल मजदूरी रोकने के विज्ञापन देख कर कई बार मेरे मन में भी आया कि इसकी शिकायत कर दूँ और इसे काम करने से रोकने की वाहवाही ले लूँ. लेकिन आज छोटू की सच्चाई जानकर मुझे अपने फैसले पर ख़ुशी हुई कि अच्छा किया मैंने किसी को नहीं बताया. मुझे नहीं मालूम था कि इतनी नन्ही उम्र में छोटू इतना ज्यादा जिम्मेदार हो चुका है वो. उसे पकड़वाकर मैं अपनी वाहवाही तो करवा लेता लेकिन क्या उसके परिवार का पेट मैं पालता या फिर सरकार उसकी जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले लेती?
.
हाँ तो उस दिन टीवी पर दिन भर इस मामले पर बहस-मुबाहिसा चलता रहा. इन मामलों के कई विशेषग्य दिन-भर इस मामले पर बोलते रहे और इस दौरान चेहरे पर विजयी मुस्कान लिए देश के कई हिस्सों से बाल मजदूरों को पकड़वाने वाले समाजसेवियों के चेहरे भी टीवी पर दीखते रहे. नन्हीं उम्र में बच्चों को काम करने से रोकने के प्रबल समर्थक तो हम भी हैं लेकिन इन सब के बीच किसी ने भी ये नहीं बताया कि अगर इन्हें काम से रोक दिया गया तो ये बच्चे कहाँ जायेंगे और इनकी जिम्मेदारियां कौन पूरा करेगा. अगर ये खुद इतने सक्षम होते तो इन्हें काम ही क्यूँ करना पड़ता. क्या देश ने सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई तंत्र विकसित किया है जिसकी दुहाई दे कर हम इन बच्चो को कह सकें कि भई तुम इतनी नन्ही उम्र में काम क्यूँ करते हो. तुम पहले अपनी पढाई पूरी करो और फिर काम में लगना...जिस दिन हम ऐसा कह सकने की स्थिति में होंगे तब हम बाल मजदूर दिवस मनाने के सही हक़दार होंगे और फिर उस दिन छोटू को चाय की दुकान से निकलने की इस मुहीम में हम भी पूरे मन से शामिल हो सकेंगे.

Wednesday 10 June 2009

नक्सलबाड़ी से आगे...ब्रांड नक्सलवाद!

नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ नक्सलवादी आन्दोलन अब बंगाल तक ही सीमित न होकर एक देशव्यापी समस्या बन चुका है। नक्सलवाद को एक वाद के तौर पर और किसानों और गरीबों की लड़ाई के तौर पर पेश करने वालों के लिए इस सप्ताह में इस विषय से जुडी चंद ख़बरों के शीर्षक यहाँ पेश कर रहा हूँ-
१) उडीसा में नक्सलियों ने २ थानों और एक पुलिस चौकी उडाई।
२) झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में नक्सली हमले में दस पुलिसकर्मी शहीद।
३) छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों के हमले में सीआरपीएफ के असिस्टंट कमांडंट शहीद तथा पांच अन्य जवान घायल।
४) महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पुलिस मुठभेड़ में दो नक्सली ढेर।
ऐसे ही न जाने कितनी ख़बरों के साथ आये दिन नक्सली ख़बरों में छाये रहते हैं। नक्सलवाद शब्द और उसके वर्तमान स्वरुप को लेकर तमाम तर्क रखे जा सकते हैं. उन्हें देखने का लोगों को नजरिया भी अलग-अलग हो सकता है. लेकिन देश का वो हिस्सा जो इससे पूरी तरह अनजान है वो नक्सलवाद को एक बड़े खतरे के रूप में देखता है. कल ही किसी समाचार पत्र में खबर छपी थी कि नक्सलवाद अब एक आन्दोलन नहीं बल्कि संगठित रंगदारी व्यवसाय बन चुका है और देशभर में इसका बाज़ार १५०० करोड़ का हो चुका है. देश के अधिकांश राज्य में अपराधी इस खोल को ओढ़कर अपना व्यवसाय चला रहे हैं.
१९६० के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन किसानों के हक़ की लडाई का पर्याय बन कर उभडा था तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक दिन ये आन्दोलन एक व्यापार का रूप ले लेगा। चारू मजुमदार और कानू सान्याल ने इस आन्दोलन को इसलिए शुरू किया था ताकि किसानों का संगठन तैयार हो सके और उन्हें जमींदारो और साहूकारों के खिलाफ एक मंच मिल सके, उनकी आवाज सुनी जा सके. वो न हो सका. एक दशक तक सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन फिर ये आन्दोलन अपने रास्ते से भटक गया. स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि इसे पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने ही ७० के दशक में दबा दिया. विभिन्न प्रदेशों के जो युवा वहां सक्रीय थे सरकारी दमन के कारण एनी राज्यों की ओरे चल पड़े और नक्सलवाद का बीज कई राज्यों में फ़ैल गया. हर जगह इस आन्दोलन के फैलने के कई कारण थे. कहीं क्षेत्रीय असमानता तो कहीं गरीबी की चाशनी में लपेट कर इसे पेश किया गया. पुरानी पीढी जबतक रही ये आन्दोलन कमोबेश अपने रास्ते पर चलता रहा. लेकिन कहते हैं न कि जब भी ताकत सिस्टम पर हावी होने लगता है तो फिर निरंकुशता अपना रास्ता बनाने लगती है. यही इस आन्दोलन के साथ भी हुआ.
शुरुआत में आन्दोलन को जिन्दा रखने के नाम पर और जमींदारों और साहूकारों से रक्षा के नाम पर किसानों से वसूली होनी शुरू हुई और फिर धीरे-धीरे ये प्रोटेक्शन मनी का रूप लेता गया। नक्सलबारी से निकल कर इस वाद ने पहले उन क्षेत्रों में अपनी जड़े जमानी शुरू कि जहाँ शासनतंत्र की पहुँच कम थी. बंगाल से निकलकर जब ये आन्दोलन बिहार पहुंचा तब इसके खिलाफ भी कई संगठन तैयार हुए. बिहार में आकर इस लड़ाई ने पहले तो जातीय रूप धरा और फिर इसे कई विरोधी संगठनों के विरोध का सामना भी करना पड़ा. इस लड़ाई की आग में बिहार करीब दो दशकों तक जलता रहा. उडीसा, आंध्र और महारष्ट्र में इसे फलने-फूलने का खूब मौका मिला. कहीं कोई संगठन नहीं, कहीं कोई विचारधारा नहीं. एक वाद का मुखौटा पहने नक्सलवाद अपराध को जायज ठहराने का एक जरिया बन गया.
(( देश के एक लोकप्रिय समाचार पत्र में नक्सलवाद पर एक स्टोरी छपी थी जिसके अनुसार ब्रांड नक्सलवाद रंगदारी और वसूली जैसे संगठित अपराध को छुपाने का एक जरिया बन चुका है। आप भी इस खबर को पढ़ सकते हैं...

रंगदारी व्यवसाय बना नक्सलवाद, 1500 करोड़ का साम्राज्य

जन आंदोलन से शुरू हुआ नक्सलवाद अब लेवी के रूप में 1500 करोड़ का संगठित रंगदारी व्यवसाय बन गया है। पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा अधिकारियों ने कहा कि भाकपा (माओवादी) खासकर इससे जुड़े समूह रंगदारी से जो रकम हासिल करते हैं उसका इस्तेमाल वे आंदोलन चलाने के लिए नहीं, बल्कि अपने नेताओं की ऐशो-आराम वाली जीवनशैली को बरकरार रखने के लिए करते हैं।
विभिन्न अभियानों के दौरान केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों और राज्य पुलिस द्वारा जब्त किए गए नक्सल साहित्य और दस्तावेज से नक्सली समूहों द्वारा वसूली जाने वाली लेवी के बारे में विस्तृत खुलासा हुआ है जिसका हर साल का आंकड़ा करोड़ों रुपये का है। भाकपा (माओवादी) हालांकि झारखंड में अब भी प्रमुख नक्सली समूह है लेकिन अन्य भी बहुत से छिटपुट समूह हैं जिन्होंने अपहरण, लूटपाट और मादक पदाथरें की तस्करी के अलावा लेवी लगाने का काम शुरू कर दिया है। इसके तहत राज्य से सालाना लगभग तीन अरब रुपये की वसूली होती है। यदि नक्सलवाद से सर्वाधिक प्रभावित सात राज्यों तथा लाल गलियारे के रूप में जाना जाने वाले झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र से लेवी के जरिये हासिल होने वाली रकम के बारे में सुरक्षा एजेंसियों के आंकड़ों पर भरोसा किया जाए तो सालाना लगभग 1500 करोड़ रुपये की आमदनी बैठती है।
सुरक्षा बलों द्वारा बरामद किए गए दस्तावेज से नक्सलियों की आय के बारे में खुलासा हुआ है जिनमें ठेकेदारों, पेट्रोल पंप मालिकों तथा भूस्वामियों से वसूली जाने वाली लेवी राशि के सही आंकड़े स्पष्ट दिखाई देते हैं। सड़कें बनाने की परियोजना में जहां आम तौर पर 10 फीसदी लेवी वसूली जाती है वहीं छोटे पुलों और अन्य परियोजनाओं के मामले में पांच प्रतिशत लेवी वसूल की जाती है। तय लेवी के अलावा वाम विचारधारा वाले चरमपंथी समूह क्षेत्र में काम करने वाले उद्योगपतियों से भी धन की मांग करते हैं। इतना ही नहीं, वे वसूले गए धन के लिए रसीद भी जारी करते हैं। सीआरपीएफ के उप महानिरीक्षक (झारखंड) आलोक राज ने बताया कि राज्य में वाम विचारधारा से जुड़े छह चरमपंथी समूह काम कर रहे हैं जिनमें से पीपुल्स लिबरेशन फंट्र ऑफ इंडिया ज्यादातर अपराधियों से बना है। इस समूह को पहले झारखंड लिबरेशन टाइगर्स कहा जाता था। उन्होंने कहा कि ये समूह लंबे समय तक विचारधारा के लिए नहीं बल्कि रंगदारी के लिए काम करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि धन के लिए सिर्फ नक्सली ही ठेकेदारों से संपर्क नहीं करते बल्कि कुछ मामलों में ठेकदार खुद धन के साथ नक्सलियों से संपर्क साधते हैं।
झारखंड के पुलिस महानिदेशक वीडी राम ने कहा कि कुछ मामलों में देखने में आया है कि ठेकेदारों ने अपने द्वारा बनाई गई सड़कों को विस्फोट से उड़वाने के लिए नक्सलियों से खुद संपर्क किया क्योंकि उन्होंने सड़क बनाने में घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया था। ऐसे ठेकेदारों का मानना होता है कि यदि उनके द्वारा बनाई गई सड़कों को नक्सली उड़ा देंगे तो उनमें लगाई गई सामग्री की गुणवत्ता की कोई जांच नहीं हो पाएगी। अधिकारियों ने कहा कि माओवादी नेता सभी तरह की आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं। हालांकि वे अपने संगठन में दूसरों के बच्चों की जबरन भर्ती करते हैं लेकिन उनमें खुद के बच्चे अच्छे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं। माओवादी पूवरेत्तर राज्यों के विद्रोहियों की तरह ग्रामीणों को अफीम की खेती करने के लिए भी उकसाते हैं।))

Monday 8 June 2009

वाकई बहुत संजीदा हो गए हैं हम!

हमारे यहाँ कोई न कोई दिवस मनाने का चलन बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। अभी-अभी दुनिया ने विश्व पर्यावरण दिवस मनाया है. इस दिन अपने एक मित्र की पर्यावरण के प्रति चिंता देखकर लगा कि दुनिया वाकई बहुत ही संजीदा हो गयी है. सुबह ऑफिस में अपने एक मित्र को लाइट और कंप्यूटर ऑफ करते देखा तो मुझे कुछ अजीब सा लगा. मेरे पूछने पर उनका जवाब था कि भाई कम से कम आज तो बिजली बचा लिया जाये. मेरे लिए ये थोडी नई बात थी. इससे पहले कभी नहीं देखा था मैंने उन्हें इस तरह संजीदा होते हुए. रोज मजे में रौशनी और कंप्यूटर की रंगीनियत का फायदा उठाने वाले मेरे मित्र को अचानक क्या हो गया यही सोचते हुए मैंने ऑफिस से बाहर नज़र डाली तो एक दूसरे मित्र पर नज़र गयी. हमेशा बाइक से ऑफिस पधारने वाले मेरे एक ये मित्र को पैदल चले आ रहे थे. मैंने पूछ डाला- क्या हुआ भाई बाइक ख़राब हो गयी क्या. उन्होंने कहा भाई आज विश्व पर्यावरण दिवस है और इसलिए मैं बस से आया हूँ.

ये बस एक दिन के लिए था और अगले दिन से फिर मेरे दोनों मित्र अपने पुराने अंदाज में आ गए. मैं फिर इंतजार में हूँ कब अगले साल ये दिन आये और इन्हें फिर से पर्यावरण की चिंता हो...

Friday 5 June 2009

अब माउस-माउस में विधमान है ईश्वर...

(इन्टरनेट पर खबरों की ख़ाक छानते एक खबर हाथ लगी- सैकडों किलोमीटर दूर स्थित भगवान के दर्शन अब इन्टरनेट पर सुलभ। इसके लिए बस पैसा पे करिए और हो जायेगी आपके नाम की पूजा. मतलब दाम चुकाईये और भगवान की कृपा के हक़दार बनिए. इसके लिए अब तीर्थयात्रा के तमाम कष्ट भी नहीं उठाने होंगे... इस खबर पर कुछ पंक्तियाँ लिखने से खुद को नहीं रोक सका।)
.
कण-कण में हैं विधमान इश्वर
ऐसा सुना था हमने
अपने पुरखो से...
लेकिन आज इन्टरनेट की खाक छानते
कुछ एक्सक्लूसिव जानकारियां हाथ लगी
कि अब
अतिआधुनिक युग आ गया है
और भगवान ने भी
मिला लिया है समय से कदम
भक्तो तक पहुँच बनाने के लिए
मंदिर से निकल पड़े हैं भगवान
और
आ गए हैं कंप्यूटर में
बस एक माउस दबाने की जरूरत है
और हो जायेगी उनकी पूजा
इसके लिए अब नहीं करनी होगी
हजारो किलोमीटर की यात्रायें और
अब सच होने वाली है
ये कहावत कि
कण-कण में है भगवान
(वैसे आप ऐसे कह सकते हैं-माउस-माउस में हैं भगवान)!
.
धनकुबेरों और वीआइपीज के पीछे
मंदिरों की लाइनों में लगकर
थक चुका भक्त भी
अब जागरूक हो चुका है
उसने भी थाम लिया है
इन्टरनेट का दामन
सीधे पहुँच बना ली है उसने
अपने भगवान तक
और घर बैठे अब उसके पास
पहुँचने लगे हैं प्रसाद
अब तीर्थयात्राओं के लिए
उसे नहीं जोड़ने पड़ते एक-एक पाई
अब भगवान आपके हैं और
आप भगवान के!

Tuesday 26 May 2009

राजनीति की बहती गंगा और पत्रकार हीथर ब्रुक!

कौन है ये हीथर ब्रुक! एक ब्रिटिश पत्रकार! मैंने आज पहली बार ये नाम सुना। अब आप पूछियेगा कि क्या किया है इस पत्रकार ने जो मैं इसके बारे में इतना ज्यादा बात कर रहा हुं...तो इसका जवाब है कि आज के जमाने में जब राजनीति और पत्रकारिता को लोग एक ही थैली के चट्टे-बट्टे मानने लगे हैं...ऐसे समय में इस पत्रकार ने राजनीति के गलियारों में लाभ की बहती गंगा और उसमें हाथ धोते राजनीतिक लोगों की सच्चाई सामने लाने की हिम्मत की है...और ऐसा करने के लिए उसने कोई चमत्कार नहीं किया है...
इस पत्रकार ने संसद के तमाम दस्तावेजों को खंगाल कर कई सारे खुलासे किये हैं। मसलन वहां के सांसद अपने भत्ते बटोरने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाते हैं। जो तथ्य मिले, वे चौंकाने वाले हैं। अपने भत्ते लेने के लिए किसी ने हेलिपैड मरम्मत का खर्च दिखाया है, तो किसी ने टेनिस कोर्ट या स्विमिंग पूल के रखरखाव का। अनेक सांसदों ने दो-दो मकानों के किराए की रसीद पेश की है, इस तर्क के साथ कि दो मकान रखना उनकी मजबूरी है- एक अपने चुनाव क्षेत्र में और दूसरा राजधानी लंदन में। हीथर ब्रुक के इस रहस्योद्घाटन ने ब्रिटेन के नागरिकों को बेचैन कर दिया है। लोगों ने सवाल उठाना शुरू कर दिया है कि आर्थिक मंदी के इस दौर में जब सामान्य नागरिक अपने परिवार के लिए एक छोटी सी रिहायश का इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं, सांसदों की इस फिजूलखर्ची का क्या मतलब है? आखिर वे पैसे आम नागरिकों द्वारा दिए जाने वाले टैक्स से ही खर्च किए जा रहे हैं। क्या वे सचमुच तंगहाल जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं? कुछ सांसदों ने अपने खर्चों में एलसीडी टीवी या झाड़-फानूस जैसी सजावटी चीजों का भी बिल भरा है, तो कुछ ने पॉर्न फिल्मों की सीडी और घोड़े की लीद उठाने वाले थैलों तक की खरीद की रसीद लगा रखी है। इतने सारे ऐशो-आराम, जाहीर है वहां के जनप्रतिनिधि भी खुद को राजा-महाराजा, आम लोगों से श्रेष्ठ, सुपर सिटिजन समझते हैं।
क्या हमारे यहाँ भी यही माहौल नहीं है। आम नागरिकों को इसकी जानकारी नहीं होती, दुनिया में कहीं भी नहीं. हीथर ब्रुक को भी ये जानकारी प्राप्त करने के लिए ५ साल तक गोपनीयता कानून के खिलाफ लड़ाई लड़नी पड़ी. सांसदों और मंत्रियों के खर्चों के बारे में जनता को जानकारी नहीं दी जाती, वहीँ नहीं कहीं भी नहीं. वहां अब इस मामले पर आवाज उठने लगी है, लोग इन खर्चों पर बहस करने लगे हैं, विभिन्न सामाजिक संगठन अभियान चला रहे हैं। हीथर ब्रुक के प्रयासों ने राजनीतिक लूट के प्रति जनता को जागरूक कर दिया है. हमारे यहाँ भी सरकार ने जनता को सूचना का अधिकार दिया है. जनता आज नहीं तो कल इसका इस्तेमाल करेगी और ये तो बस एक शुरुआत है.
----------------------------------------------------------------------
एक जानकारी जो हमें ख़बरों कि तलाश के दौरान इन्टरनेट पर मिली...{{राजनीति शास्त्र के एक यूरोपियन प्रोफेसर पीयरे लेम्फिक्स कहते हैं कि राजनीतिज्ञों और वेश्याओं के बारे में पुरानी कहावत अब बदल चुकी है, क्योंकि वेश्याएं आज भी वही बेचती हैं, जो उनका है, पर राजनीतिज्ञ उसका सौदा करते हैं, जो उनका नहीं है।}}

Monday 25 May 2009

इन तीस हज़ार लोगों का पेट क्या प्रभाकरण भरेगा!

श्रीलंका में लड़ाई ख़त्म हो गई है। लिट्टे का मुखिया मारा गया. श्रीलंका की सरकार ने राहत की सांस ली. दशकों से जारी खूनी लड़ाई का अंत हो गया. पूरी दुनिया ने श्रीलंका में सैनिकों का फ्लैगमार्च देखा, मौत बरसाती बंदूकों की गड़गडाहट और तोपों से बरसते शोले टीवी पर देखे. इस माहौल में जान बचाने के लिए घर-बार छोड़कर इधर-उधर छुपते शरणार्थी रुपी जीवों को भी पूरी दुनिया सहानुभूति से देखती रही. मैं खुद श्रीलंका की लड़ाई के फुटेज टीवी पर देखते हुए बड़ा हुआ हुं और हर दिन की लड़ाई में मारे गए लोगों(सैनिक, श्रीलंका के सिंहली और तमिल समुदाय के लोग सभी) की संख्या को गिनकर अपने मूड के अनुसार खुश और दुखी होता रहा हुं. लड़ाई शुरू हुई, चलती रही और अब ख़त्म हो गई--मेरे लिए ये बस एक खबर भर है और इसका मेरे सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. लेकिन॥लेकिन अब जब लड़ाई ख़त्म हो गई तो इस दौरान आई एक खबर दुनिया भर में जारी लड़ाई --चाहे वो किसी भी नाम पर हो-- की कलई खोलती है. खबर ये है कि जब लिट्टे का सफाया करने के लिए श्रीलंकाई फौज निर्णायक लड़ाई लड़ रही थी तब बमों की बारिश से बचने के लिए लाखों लोग अपना घर-बार छोड़कर भागे थे. इसमें कई मारे गए और कई अपनी जान बचने में सफल रहे. लेकिन इन दोनों प्रकार के इंसानों के बीच ३० हज़ार लोग ऐसे भी हैं जो जिन्दा तो रह गए लेकिन अपंग हो गए. राहत एजेंसियों के मुताबिक तब क्षेत्र से भागे दो लाख 80 हजार लोगों में हर दस में से एक व्यक्ति अपंग हो गया है। ऐसे लोगों की संख्या 25 से 30 हजार है।


लड़ाई ख़त्म हो गयी है और दुनिया भर की राहत एजेंसियों ने इस इलाके में काम शुरू कर दिया है। शायद कइयो की जिंदगी फिर पटरी पर आ भी जाये लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है. ये ३०,००० लोग हमेशा अपंग रहेंगे और बहुत होगा तो इन्हें प्लास्टिक के हाथ-पैर दे दिए जायेंगे. जिससे ये घसीट-घसीट कर अपनी जिंदगी काट सकें. तमिल समुदाय को आज़ादी दिलाने के नाम लड़ाई लड़ रहा प्रभाकरण मारा गया और लड़ाई ख़त्म होने के बाद फौजी भी अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर वापस लौट जायेंगे लेकिन इन लोगों की जिंदगी में जो तूफ़ान आ चुका है उसकी भरपाई कौन करेगा. कौन इनकी रोजाना की जिंदगी में आने वाली समस्याओं को हल करेगा.


ऐसा नहीं है कि ऐसे अभागे लोग केवल श्रीलंका में ही हैं. इतिहास हमेशा इस तरह के घाव छोड़ता रहता है. राजा-महाराजाओं के काल से लडाइयां होती रही है. राजा-महाराजा अपनी नाक के लिए बड़ी-बड़ी लडाइयां लड़ते रहे हैं. टीवी पर रामायण-महाभारत में हमने गाज़र-मूली की तरह लोगों को कटते-मरते हुए देखा. आधुनिक काल में हथियार बदले और हमने परमाणु बमों की जद में आये जापान के लोगों को चीखते-कराहते सुना.हजारों-लाखों लोग दशकों तक इस घाव को लिए इस दुनिया से चले गए. विएतनाम, युगोस्लाविया, अफगानिस्तान, इराक जैसे देशों के आधुनिक शासकों ने भी बड़ी-बड़ी लडाइयां लड़ी. आज भी अफगानिस्तान, इराक, सोमालिया, कांगो, रवांडा, पाकिस्तान और अन्य देशों के लोग टीवी के परदे पर दिखते रहते हैं. कभी बम और मिसाइलों से उडे हुए चिथरों के रूप में तो कभी उनसे बचने के लिए दौड़ते-भागते शरणार्थियों के रूप में. कई बार शरणार्थी दिवस के दिन अपने शरणार्थी शिविरों में बेठौर जिंदगी जीते हुए भी ये कैमरे से सामने दिख जाते हैं. शासक आये और गए, कबीले कब के ख़त्म हो गए लेकिन मरने का कबीलाई अंदाज अभी भी हमने जिन्दा रखा है. तभी तो हजारों-लाखों लोगों को खोने के बाद भी मानव सभ्यता आपस की लड़ाई का कोई तोड़ नहीं निकाल सकी. सदियों से हम ऐसे ही लड़ते आये हैं और लड़ते रहेंगे. ये एक अनथक कहानी है और यु हीं जारी रहेगी ये लड़ाई...दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालिए...बस देश-दुनिया के नजारे देखते रहिये और गिनते जाइये लाशों को...

Sunday 24 May 2009

चलो अब पार्टी को धो-पोछ कर चमका लें...

चुनाव ख़त्म हो गया। जनता ने दगा दे दिया और किस्मत ने भी साथ नहीं दिया। हमें क्या मालूम था इस तरह से बिसरा देगी जनता हमारे काम को। क्या-क्या नहीं किया इस कृतघ्न जनता के लिए. जिस जनता के हाथों में एक अदद ग्लास तक नहीं थी उसे कमंडल वगैरह बटवाए... मस्जिद-मंदिर की लड़ाई खड़ी की... रथ यात्रायें की...इस दौरान न तो धूप देखा और न बरसात का भय अपने ऊपर हावी होने दिया. बस एक गलती तो की थी. इतनी छोटी सी बात की इतनी बड़ी सजा. अरे जबान है फिसल गई... ये समझना चाहिए था न. हमने तो अपनी इमेज चमकाने के लिए पडोसी देश के कायदे आजम की तारीफ कर दी थी ताकि जब वापस अपने देश लौटूं तो सेकुलर नेता के रूप में स्वागत के लिए लोग तैयार दिखे. लेकिन बेवकूफ जनता ने न जाने क्या समझ लिया. उल्टे पीछे पड़ गए सब. पार्टी अध्यक्ष का पद तक छीन लिया।

फिर बड़ी मेहनत से हमने खुद को झाड़-पोछ कर नए प्रोडक्ट के रूप में बाज़ार में उतारा। इस बार इन सबसे ऊपर उठकर हमने खुद को पीएम-इन-वेटिंग के रूप में लोगों के सामने रखा। इसके लिए कितनी मेहनत करके अपने ऊपर किताब लिखा। देश के विभिन्न शहरों में उसके विमोचन के लिए कार्यक्रम कराये. लोगों तक अपने किताब की खबर पहुँचाने के लिए मीडिया वालों पर न जाने कितने खर्च करने पड़े. अपनी छवि चमकाने के बाद उतरे थे हम चुनाव के मैदान में. कितना खर्च करना पड़ा था इस जनता को लुभाने के लिए. देश भर में न जाने कितनी रैली, कितनी चुनावी सभाओं में बोलते-बोलते गला ख़राब हो गया. वादों और आश्वासनों को गढ़ते-गढ़ते बचपन से याद किये गए सारे शब्द ख़तम हो गए. इतना सारा कुछ कोई करता है क्या किसी गैर के लिए. अरे हमने तो इस देश की जनता को अपना माना था मुझे क्या मालूम इस जनता का दिल मोम का नहीं पत्थर का है. लगा था मेरे इन कामों को देखते हुए देश की जनता जरूर मेरी इज्ज़त का ख्याल रखेगी. जिस जनता के लिए इतना कुछ किया वो मेरे जुमले पीएम-इन-वेटिंग को मेरे लिए गाली थोडी ही बनने देगी. लेकिन इस अवसरवादी जनता ने ऐसा नहीं किया और गच्चा दे दिया. इस हार से हम इतने शर्मिंदा हैं कि अब घर से बाहर निकलने का जी नहीं करता है मेरा. मैंने तो सोच रखा था सब छोड़ कर चला जाऊंगा कैलाश पर्वत पर मंथन करने. लेकिन पार्टी ...पीछा छोडे तब न. मेरे हटने की खबर सुनते ही पार्टी के नेताओं में मेरी खाली जगह भरने के लिए जैसे होड़ मच गई. इस माथा-फुटौवल से पीछा छुडाने के लिए सबने फिर मुझे जाने ही नहीं दिया और हम फिर से वहीँ के वहीँ रह गए. लेकिन कोई बात नहीं हमने एक बैठक की है और आगे के लिए अपना एजेंडा तय किया है।

हमने तय किया है कि हम अब पार्टी को संसद से सड़क तक चाक-चौबंद करेंगे. संसद में हम जहाँ मजबूत विपक्ष के रूप में नजर आने का प्रयास करेंगे वहीँ बाहर संगठन चुनावों के जरिए भावी चुनौतियों के लिए अपने को चाक-चौबंद करेंगे. भाई इस बार चूक गए तो क्या... अगली बार तो नहीं छोडेंगे. यहाँ तक कि हमने तो संगठन को चुस्त दुरुस्त करने की तैयारी भी शुरू कर दी है। हमने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक अगले महीने रखी है और पहले इसमें इस चुनाव में अपनी हार के कारणों की समीक्षा करेंगे फिर आगे की रणनीति पर विचार करेंगे. इसके साथ ही हम चिंतन बैठक भी करेंगे. फिर पार्टी को खूब धो-पोछ कर बाज़ार में नए ब्रांड के कवर में लपेट कर लायेंगे. इसके प्रचार पर भी खूब ध्यान देना होगा. किसी अच्छे से विज्ञापन राइटर से स्क्रिप्ट लिखवाकर जनता के सामने टीवी, रेडियो और अख़बार के जरिये परोसेंगे। उस समय के किसी मशहूर और धासु गाने के अधिकार खरीद कर उसे अपने नारे की चाशनी में लपेटकर जनता के सामने परोस देंगे. फिर देखेंगे कैसे हमारी बातों में नहीं आती है जनता. इतनी ओवर हौलिंग के बार हम एकदम नए दिखेंगे...एक दम चकाचक--- एकदम ब्रांड न्यू...

Monday 18 May 2009

ई का हो गवा रे...नेताजी का सब खेले गड़बड़ा गवा...

हाँ तो हम बात कर रहे थे अपने नेताजी की। रात में अलार्म लगाकर सोये थे कि सुबह चुनाव परिणाम आने वाला है और रामफल पंडित की बात सच निकली तो उनकी किस्मत का दरवाजा आज खुलने वाला है. सुबह हुई, अलार्म बजी और नेताजी जल्दी-जल्दी तैयार हो मतगणना केंद्र की ओर चल पड़े. निकलते वक्त उनकी पत्नी ने टीका लगाया ये सोचकर कि शायद आज पति महोदय की किस्मत साथ दे ही दे. हाँ तो नेताजी समय पर मतगणना केंद्र पहुँच गए. नेताजी काफी कांफिडेंट थे आखिर रामफल पंडित का कहा सच काहे न होगा. नेताजी की नज़र मतगणना कक्ष से बाहर आ रहे हर आदमी पर थी. बाहर बोर्ड पर लिखे जा रहे हर अपडेट को नेताजी अपनी किस्मत की ओर बढ़ता कदम मान कर चल रहे थे. लेकिन वैसा नहीं हो पाया जैसे नेताजी ने सोच रखा था.

धूप चढ़ती गई और चुनाव का परिणाम आ गया। नेताजी दौड़ में बहुत पीछे रह गए थे. सामने से जब विजयी उम्मीदवार का जुलूस चला तो नेताजी भी घर की ओर रुख किये. एक-एक कदम ऐसे भारी लग रहा था जैसे किसी ने सैकड़ों टन वजन पैरों में बाँध दिया हो. घर जाने की हिम्मत नहीं हुई और गाँव के पहले चौराहे से ही नेताजी ने रामलाल के चाय की दुकान की ओर रुख किया. लेकिन वहां जाना भी उनके लिए ठीक साबित नहीं हुआ. इलाके के कई लोग वहां बैठे थे और जमानत जब्त करवाकर लौटे नेताजी की खिल्ली उडाने से कोई चूकना नहीं चाहता था. नेताजी को आज महसूस हो रहा था कि अच्छा होता रामफल पंडित की बातों में नहीं आता. इस तरह इलाके के लोग खिल्ली तो नहीं उडाते. वहा से हटकर नेताजी पास के बगीचे में बने चबूतरे पर बैठ गए. कई सप्ताह बाद नेताजी को अकेले बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. वरना जबतक चुनाव चला लोग उनको घेरे रहते थे. आज सुबह भी माधव, पूरण, चंदर वगैरह उनके साथ ही आये थे मतगणना केंद्र तक. लेकिन हारने के बाद धीरे-धीरे बहाना बनाकर कट लिए. बाद में नेताजी ने उन्हें विजयी उम्मीदवार के जुलूस में झूमते हुए देखा था. लेकिन अब कर भी क्या सकते थे. अब नेताजी को इस सब लोगों पर खर्च किये का अफ़सोस हो रहा था.

नेताजी जैसे अतीत की गहराइयों में डूब गए। कहाँ कल तक देखा करते थे संसद में पहुचने के सपने. आज संसद तो क्या घर में घुसने की भी हिम्मत नहीं हो रही है. नेताजी को मालूम था क्या होने वाला है घर पहुचने पर. पत्नी जो सुबह आरती लेकर बिदाई दे रही थी. घर पहुचते हीं हल्ला मचा देगी. मोहल्ले के लोग सुने तो सुने लेकिन वो कहाँ बख्शने वाली है आज. कल नेताजी ने प्लान बनाया था सरकार को समर्थन देने तक पार्टी उन्हें किसी पहाडी इलाके में छुपा कर रखेगी और वे अपने परिवार के साथ घूमने का मजा ले सकेंगे. अभी ये योजना उन्होंने मन में ही रखी थी आज जीतने के बाद बताने वाले थे. लेकिन उनकी बीवी को इससे क्या. इलाके के वोटरों ने उनके सारे सपने की वाट लगा दी. घर के अलमारी में धुलकर रखवाई सिल्क का कुरता-पजामा और चमकदार जूता जो उन्होंने जीतने के बाद पहनने के लिए बनवाया था उन्हें गाली देते हुए प्रतीत हो रहे थे. हल्का अँधेरा घिरने के बाद वे सर झुकाए घर की ओर निकले. सोचा अब कोई नहीं टोकेगा और मजाक नहीं उडाएगा. एक बार घर पहुँच जाये तो कुछ दिन बाहर नहीं निकलेंगे. जब सब लोग शांत हो जायेंगे तब ही निकलेंगे मोह्हल्ले में.

अभी नेताजी अपनी गली में मुड़े ही थे कि पता नहीं कहाँ से खेदन धोबी की नजर उनपर पड़ गई. . नेताजी ने लाख बचना चाहा लेकिन उस कमबख्त ने टोक ही दिया. अरे नेताजी अपना कुरता और को़ट तो लेते जाइये. ये कहते हुए उसने नेताजी का रेशमी कुरता, गरम को़ट और गमछा पकडा दिया. अब नेताजी उस बेवकूफ को क्या कहते, हाथ में टांगे घर की ओर बढे. नेताजी ने को़ट धुलने को ये सोचकर दे दिया था कि जीतने के बाद अगर पार्टी की ओर से उन्हें किसी बर्फिले इलाके या किसी ठंडे इलाके में स्थित हील स्टेशन में छुपाया जायेगा तो ये कोट काम आएगा. लेकिन आज नेताजी को हाथ में टंगा को़ट उनके सपनो की लाश के समान लग रहा था. घर के सामने आकर नेताजी ने दरवाजे पर निगाह डाली. काफी हिम्मत बटोर कर नेताजी ने दरवाजे की ओर कदम बढाया. लेकिन आज उनके कदम उनका साथ नहीं दे रहे थे और घर किसी अँधेरी गुफा के समान लग रहा था. उन्हें लग रहा था कि आज जो अन्दर गए तो फिर कभी बाहर नहीं निकल सकेंगे...

Saturday 16 May 2009

वोटर युग का अवसान अब बस होने ही वाला है!

भारतीय लोकतंत्र का मैं भी एक वोटर हूँ। अब यानी कि १५ मई की आधी रात को मुझे लगाम अपने हाथ से छूटती हुई दिख रही है. वैसे तो १३ मई से ही हम जैसे वोटर रुपी जीव खुद को असहाय महसूस करने लगे थे. लेकिन अब जाकर लगाम अपने हाथ से पूरी तरह बाहर जाती हुई दिख रही है. वैसे तो लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि ये जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा चलाया जाने वाला शासन है लेकिन सच कहें तो अब अगले 5 सालों तक हम वैसे ही होंगे जैसे चिडियाघर के पिजरे में बंद शेर होता है. हम फुफकारते तो रहेंगे लेकिन कुछ कर नहीं सकेंगे. अब हमारा वक्त ख़त्म हो रहा है और हमारे नेताजी का युग शुरू हो रहा है.

हो भी क्यूँ न इसी दिन के लिए न जाने कब से मन्नत मांगते आ रहे थे हमारे नेताजी। उनकी अम्मा तो उनके सफल होने की बाट जोहते कब की इस दुनिया से रुखसत हो गईं। इतना ही नहीं नेताजी घर से बाहर रहने के कारण हमेशा अपने घर के लोगों की आलोचना के शिकार होते रहे हैं। प्रेमचंद के उपन्यास शतरंज के खिलाडी के पात्र नवाब साहब की तरह उनकी बीवी जब चाहे तब उनपर बरस उठती हैं- "आपको घर से क्या लेना-देना, हमेशा पता नहीं क्या भाषणबाजी चलती रहती है। पता नहीं कब काम के आदमी बनोगे। पूरी उम्र बीत गई इसी फालतूबाजी में." नेताजी ने इस बार देवी मां के यहाँ मन्नत मांग रखी है जीत कर आयेंगे तब जवाब देंगे इनको. तब हम भी दुनिया में सीना तानकर चल सकेंगे. तब हम देश के विशेषाधिकार प्राप्त नागरिक होंगे और जो चाहे कर सकेंगे. तब कोई दिखाए हमारी गाड़ियों के काफिले के रस्ते में आकर. ऐसे रौदेंगे कि पता भी नहीं चलेगा. एक एक चीज के लिए तरसे हैं लेकिन अब आ रहा है हमारा वक्त. देश के विकास में सहभागी बनने का, परियोजनाएं आगे बढ़ाने का, ठेकेदारी पास कराने का, देश पर हुकुम चलाने का...तब लेंगे अपने इलाके के अधिकारीयों की क्लास और लेंगे अपने साथ हुए हर बदतमीजी का बदला.

वैसे इन सब से पहले नेताजी को चुनाव में किये गए अथाह खर्च की वापसी की चिंता भी सता रही है। इसके लिए भी उन्होंने रोड मैप बना रखी है. भाई गठबंधन की राजीनीति के ज़माने में नेताजी को एकला चलने की नीति की ताकत और अपनी अहमियत अच्छी तरह मालूम है. इसलिए नेताजी अभी अपने पत्ते नहीं खोल रहे हैं और संसद में पहुँच कर किसे समर्थन देंगे इसका फैसला सामने वालों की थैली का अंदाजा लगने के बाद ही करेंगे. इस मौके का इस्तेमाल नेताजी परिवार के संग किसी महँगी और सुंदर जगह की मुफ्त यात्रा के लिए भी करने वाले हैं. जिस दल से नेताजी का टाका भिडेगा वो बहुमत साबित होने तक किसी गुप्त जगह पर नेताजी को रखेगी ही. तब नेताजी कोई रमणीय स्थल का चुनाव करेंगे और अपने परिवार के साथ खूब मौज-मस्ती करेंगे.

वैसे नेताजी नए ज़माने के उसूलों से अनजान नहीं हैं। अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में उन्होंने ज़माने को खूब जांचा-परखा है. इसलिए उन्होंने संसद में पहुँचने के बाद---"बी प्रोफेशनल" शब्द को अपना मूलमंत्र बनाने का फैसला किया है-- वो भली-भांति जानते हैं कि उनके जीतने के बाद कैसे उनके रिश्तेदार जो कल तक उनको घास भी नहीं डालते थे अब उनको डोरे डालेंगे. इसलिए नेताजी ने प्रोफेशनल अंदाज अपना कर केवल उन्हीं लोगों का काम करने का फैसला किया है जो उनके आर्थिक विकास में सहायक सिद्ध हो सके और खुद के साथ-साथ नेताजी की आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सके.

आज का दिन नेताजी के ऊपर बहुत भारी गुजरा। दिनभर नेताजी रामफल पंडित के साथ बाहर के कमरे में बैठकर कुंडली में न जाने क्या तलाशते रहे. माफ़ करिएगा मैं नेताजी पर कोई आरोप नहीं लगा सकता, क्या पता नेताजी और पंडित रामफल मिलकर कुंडली और पंचांग में से देश का कुछ भला तलाश कर निकाल रहे हों. वैसे पंडित जी के कहने पर ही नेताजी ने राजनीति में दांव आजमाने का फैसला किया था. जब पंडितजी ने उन्हें कहा था कि आपकी कुंडली में तो राजयोग है और आपकी पांचों अंगुलियाँ मरते दम तक घी में डूबी रहेगी. काफी सोचने-विचारने के बाद नेताजी ने राजनीति में उतरने का फैसला किया था क्योंकि उनके अनुसार यही वो जगह थी जहाँ रहकर वे राज भोग सकते हैं और उनकी पांचों अंगुलियाँ घी में डूब सकती है वरना आज के आम आदमी को घी तो क्या दूध तक नसीब होना मुश्किल हो गया है...रात में सोते वक्त नेताजी ने घड़ी में अलार्म लगा लिया है कल सुबह जल्दी उठना है. पंडित रामफल की माने तो कल ही शुभ मुहूर्त है नेताजी के कुंडली में लिखे राजयोग के पूर्ण होने का...

Friday 15 May 2009

'स्लमडॉग' अजहरुद्दीन और मिलिनेअर फ्रीडा पिंटो!

हाल ही में एक फिल्म आई थी 'स्लमडॉग मिलिनेअर'। एक चाय वाले के करोड़पति बनने की अविश्वश्नीय लेकिन दर्दभरी दास्ताँ। फिल्म में देशी-विदेशी क्रियेटिव महारथियों का जमावाडा था. ब्रिटिश डायरेक्टर, भारतीय संगीत निर्देशक और फ्रेंच डीजे के तडके के बीच गरीबी की ऐसी जबरदस्त मार्केटिंग की गई कि फिल्म ने दुनिया भर में अपना डंका बजा दिया. फिल्म ने ८ ऑस्कर जीते और चमचमाते भारतीय सिनेमा जगत ने इसे अपनी सफलता के रूप में प्रचारित किया. फिल्म ने जबरदस्त कारोबार किया॥एक रिपोर्ट के अनुसार फिल्म अब तक 32 करोड़ डॉलर से ज्यादा की कमाई कर चुकी है।

इस फिल्म से जुडी दो खबरें आज पढने को मिली। दोनों खबरें इस फिल्म से जुड़े कलाकारों से जुडी हैं। पहली खबर फिल्म की हीरोइन फ्रीडा पिंटो से जुड़ी हुई है. इस फिल्म की अपार सफलता ने फ्रीडा को अचानक लाइम लाईट में ला दिया. फ्रीडा आज के वक्त में हॉलीवुड के मंहगे सितारों में शामिल हो चुकी है. फ्रीडा के खाते में आज एक और सफलता जुड़ गई. मशहूर फैशन पत्रिका 'मैक्सिम' की दुनिया के १०० हॉट स्टार्स की लिस्ट आई है और फ्रीडा ने ४९वे स्थान पर जगह बनाई है. इतना ही नहीं मैक्सिम के मार्च के इंडियन संस्करण के कवर पर भी फ्रीडा दिखेंगी. मतलब सफलता आज फ्रीडा के कदम चूम रही है।

इसी फिल्म में एक बाल कलाकार अजहरुद्दीन इस्माइल एम। शेख ने भी काम किया था। झुग्गी का रहने वाला अजहरुद्दीन आज भी वही रहता है उसकी लाइफ स्लम से शुरू हुई थी और आज भी वही पल रही है. स्टारडम ने उसे झुग्गी से नहीं निकाला. फिल्म की अब तक की कमाई अरबो डॉलर भले ही हो लेकिन इससे अजहरुद्दीन की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता. इतना ही नहीं आज हुई एक घटना ने अजहरुद्दीन को झुग्गी से भी निकाल बाहर कर दिया. मुंबई में गुरुवार सुबह वृहन मुंबई नगर निगम (एमसीजीएम)द्वारा करीब 50 झोपड़ियां ढहा दिए गए. इसमें अजहरुद्दीन की झुग्गी भी थी. मीडिया को जैसे ही भनक मिली दौड़ पड़े टूटी हुई झुग्गी की ओर. मीडिया को मसाला मिल गया था. अजहर ने जो मीडिया को बताया वो गौर करने वाली बात है, अजहर ने बताया---"उसके पास रहने को अब कोई ठिकाना नहीं। हम चिलचिलाती धूप में सड़क पर बैठे हैं। हमारा सारा सामान या तो फेंक दिया गया है या फिर नष्ट हो गया है। हम नहीं जानते आज हमारा पेट कैसे भरेगा। नहीं मालूम कि शाम को मैं क्या खाऊँगा और कहाँ सोऊँगा." फिल्म की सफलता के बाद इन बाल कलाकारों को घर देने की घोषणा की गई थी जाहिर है अगर घर मिल गया होता तो ये झुग्गी में क्या करते...

फ़िल्मी स्लमडॉग को मिलिनेअर बनाकर 'स्लमडॉग मिलिनेअर' जरूर बिलिनेयर बन गया लेकिन इससे स्लम की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. हाँ पुलिस ने जरूर स्लम ख़त्म कर गरीबी मिटाओ, नहीं-नहीं सॉरी "गरीबों को मिटाओ" का अपना वादा पूरा किया है...