Friday 30 October 2009

बिहार में राजनीति के जरिये विकास की बयार!

अगर सीधे शब्दों में कहें कि आधा बिहार राजनीतिक हो गया है तो कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। हाल ही में अपने गाँव गया था। पिछले २० सालों से वहां के बदलाव को मैं देख रहा हूँ लेकिन इस बार जो देखा वाकई गौर करने लायक है. बदलाव की ये बयार पिछले ४-५ सालों में बहुत प्रबल हुई है और अब उसका असर गाँव-गाँव में दिखने लगा है. इसका श्रेय जाता है देश के शीर्ष नेतृत्व की सोच और लोकतान्त्रिक संस्थाओं की मजबूती को. हर जगह विकास का अपना अलग-अलग रास्ता होता है, बिहार में बदलाव और प्रगति का ये काम राजनीति के जरिये हो रहा है. वैसे भी बिहार को राजनीतिक पहचान वाली जमीन के रूप में बहुत पहले से जाना जाता है. मुझे याद है ५-६ साल पहले का वह वक्त... जब बिहार में ग्राम प्रधान का चुनाव हुआ था तब बिहार में गांवो के स्तर पर पहली बार राजनीतिक हलचल मचते दिखी थी, इसके पहले चुनावों में उतरने का काम कुछ खास लोगों तक ही सीमित था. तब गांवो के लोगों को पहली बार लगा था कि सत्ता में उनकी भी भागीदारी हो सकती है. उस बार कई स्तर पर चुनाव हुए थे. ग्राम प्रधान के लिए, वार्ड मेंबर के लिए, पंचायत समिति के लिए और प्रखंड स्तर की संस्थाओं के लिए भी. तब जाकर काफी संख्या में लोग चुनाव मैदान में दिखे थे. यूँ कहें तो राजनीति घर-घर के बीच शुरू हो गई और साथ ही वहां आगे बढ़ने की होड़ भी शुरू हुई, एक प्रतियोगिता का माहौल पैदा हुआ. देश के अन्य राज्यों में जाकर काम करने वाले कईयों ने गाँव वापस आकर राजनीति में अपनी किस्मत आजमाई और सफल भी रहे। इसके बाद बड़े पैमाने पर शिक्षक बहाली के सरकारी कदम ने गाँव में रह रहे शिक्षित युवा वर्ग के लिए रोजगार की एक उम्मीद पैदा कर दी। शिक्षामित्र, आंगनवाडी जैसे कार्यक्रमों ने स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा किये और करीब हर गाँव के ८-१० लोग इन कार्यक्रमों के जरिये रोजगार पाने में सफल रहे॥वहीँ स्थानीय राजनीति के उभाड़ ने कईयों को इस राजनीति में लगा दिया...इसके आलावा ग्रामीण रोजगार गारंटी के कार्यक्रम और सस्ते अनाज के कार्यक्रमों ने भी वहां बदलाव की उम्मीद जगाई है.
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ग्राम प्रधान के चुनाव के बाद सत्ता के विकेंद्रीकरण की दिशा में पैक्स का चुनाव अगला कदम साबित हुआ है. हाल में जब गाँव गया हुआ था तब वहां पैक्स के चुनाव की धूम थी. पैक्स ग्रामीण कृषि और सहकारी समिति है और पंचायत स्तर पर इनके सदस्यों का चुनाव होना था. इस बार हर जगह धूम थी... पैक्स अध्यक्ष और सदस्यों के पद पर कब्जा ज़माने के लिए लोगों ने पूरा जोर लगा रखा था. खैर इस कार्यक्रम के तहत भी काफी लोग राजनीति में शामिल कर लिए जायेंगे और कई अन्य लोग भी इनसे लाभान्वित होंगे. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वहां की ग्रामीण आबादी राजनीति की प्रक्रिया में शामिल होकर सशक्त हो रही है. हालाँकि अभी भी चुनावों में कई जगह बाहुबल का प्रयोग देखने को मिल रहा है और राजनीति में जातीय गोलबंदी भी जारी है..वैसे इसमें कुछ भी नया नहीं है और ऐसी स्थिति शुरूआती दौर में देखने को मिलती ही है. उम्मीद है कि आने वाले समय में बिहार इन कुछ नकारात्मक बातों को पीछे छोड़कर बदलाव की प्रक्रिया को आत्मसात कर लेगा.

Sunday 4 October 2009

खगड़िया नरसंहार के सन्देश!

बिहार के खगड़िया जिले में नरसंहार हो गया...बाहर वालों के लिए ये एक नक्सली हमला भर है जैसा रोजाना छत्तीसगढ़, झारखण्ड और दक्षिण बिहार के कई इलाकों में होते रहता है। उनके लिए ये बस एक खबर भर है लेकिन जो लोग बिहार को समझते हैं. जिन्होंने बिहार को करीब से देखा है और जो पिछले कुछ सालों से बिहार में कोई नरसंहार न होने के कारण सुकून की सांस लेने लगे थे उनके लिए खगडिया वाली घटना कोई आम घटना नहीं है क्यूंकि वे जानते हैं कि यह आने वाले तबाही की एक झलक भर है और उन्हें ये भी मालूम है कि कहीं न कहीं इस आग को भड़काने में हमारे यहाँ की जातीय राजनीति जिम्मेदार है। बिहार में भूमि विवाद बहुत पुराना है और इसी का फायदा उठाकर रणवीर सेना और नक्सली वहां दशकों से अपना धंधा करते रहे और यह आज भी बदस्तूर जारी है।
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लेकिन कहा जाता है कि जब भी मामला संवेदनशील हो तो शासन सत्ता को गंभीरता के साथ पेश आना चाहिए...जिसका आज बिहार के राजनीतिक नेतृत्व में आभाव सा दिखने लगा है। जब नीतिश कुमार की सरकार बिहार में आई थी तब सबने उम्मीद की थी कि ये बिहार के लिए नई करवट होगी और जातीय राजनीति से ऊपर उठकर यह सरकार बिहार के लोगों को प्रगति के रास्ते पर ले जाने में कामयाब होगी. लेकिन हाल में जब पूर्व राजस्व और ग्रामीण विकास सचिव डी बंदोपाध्याय ने भूमि सुधारों पर अपनी रिपोर्ट सौंपी तो उम्मीद की जा रही थी कि सरकार का रुख बहुत सधा हुआ होगा और ऐसा कुछ नहीं किया जायेगा जिससे बिहार फिर जातीय और वर्गीय लड़ाई की आग में कूद पड़ेगा. लेकिन जब सरकार की इसपर प्रतिक्रिया सामने आई तो जमीन के मालिकों को बेचैन कर देने वाला था. बटाईदारों को जमीन का मालिक बना दिया जायेगा ऐसा सुनकर भला कैसे समाज में टकराव नहीं होगा? सरकार के इस रुख को देखते हुए जमीन के मालिक बटाईदारों से अपनी जमीन वापस लेने लगे और राजनीतिक दांव-पेंच में स्थानीय नेताओं ने इस आग को हवा दी. नक्सलियों को फिर से मजबूत होने का मौका मिल गया. इसी की परिणति थी खगडिया में हुआ नरसंहार.
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लेकिन अगर दूरदर्शी नजरिये से देखा जाये तो इसमें नुकसान बटाईदारो का ही ज्यादा है. अबतक जमीन पर खेती की एक परिपाटी होती थी..जो जमीन का मालिक है अगर वह अपनी जमीन पर खेती नहीं कर कोई और काम कर रहा हो तो वह खेती के काम में लगे लोगों को अपनी जमीन बटाई पर दे देता था और उसके बदले एक निश्चित रकम या फिर उगे हुए अनाज का निश्चित हिस्सा उसे मिलता था. खेती करने वाला शख्स मेहनत करके अपना हिस्सा पाता था.. सच कहें तो इसमें बटाईदार को आधे से भी ज्यादा हिस्सा मिलता था. लेकिन जब यह कहा जायेगा कि जो बटाईदार है जमीन उसी की हो जायेगी तो फिर मुश्किलें बढेंगी ही न.. मालिक अपना जमीन ले लेगा और अपना जमीन भले ही खाली रखेगा लेकिन बटाई पर नहीं देगा. इससे बटाईदार के घर जो अनाज जाता था वह रुक जायेगा और देश के हिस्से में जो उत्पादन हो रहा था वह भी रुक जायेगा...ये तो विकास ठप्प करने वाला और सामाजिक संघर्ष बढ़ने वाला कदम ही साबित होगा. ये बिलकुल वैसे ही होगा कि कोई अपनी मेहनत की कमाई से घर बनाये और उसे किसी को किराये पर रहने को दे और सरकार कहे कि जो रह रहा है वही घर का मालिक होगा..फिर कोई क्यूँ अपना घर किसी को किराये पर देगा. खगडिया में हुई घटना तो एक शुरुआत है और अगर बिहार की सरकार व्यावहारिक नजरिया नहीं अपनाती तो जमीन की लड़ाई की ये आग पूरे बिहार में फ़ैल जायेगी और खेती प्रधान बिहार राज्य उत्पादकता भूलकर तबाही के काम में लग जायेगा.