Thursday 26 June 2008

यही है लोकतंत्र...!

राजनीतिक चाय पार्टियों और राजनीतिक तलाक़ जैसी
शब्दावली वाले इस युग में
बहुत अहमियत है राजनीतिक बयानबाजी की
इसके लिए पार्टियाँ
करती हैं एक बड़ी राशिः खर्च आजकल।
बड़े-बड़े विद्वानों की मदद ली जाती है
लोक-लुभावने नारों और शब्दावली के अनुसन्धान पर।

लेकिन आम जनता के लिए
नहीं है कोई अहमियत
बड़े-बड़े शब्दों और उनके निहितार्थों की
क्यूंकि उन्हें जीना है
उसी रोज-रोज के चिक-चिक के साथ
जिनके साथ वे पैदा हुए
और जिनके साथ ही बड़े हुए...

और अब जिस रोज-रोज की चिक-चिक ने
बना लिया उनकी जिंदगी में अपना स्थान
सुबह जागने से लेकर देर रात को
थककर चूर हो जाने तक।
और फ़िर उंघती आंखों को मलते हुए
अगले दिन के खर्च को
उँगलियों पर जोड़ते हुए
और फ़िर उन्हें जुटाने के उपायों पर
गौर करते हुए...सो जाने वाले लोगों के लिए,
नहीं है कोई अहमियत
बड़े-बड़े शब्दों और बड़ी-बड़ी बातों की।

क्यूंकि नहीं है ये उनकी जिंदगी का हिस्सा
उनके लिए ये बस
टीवी पर चलने वाला एक तमाशा है
और बुद्धिजीवी तबके के लिए
यही है लोकतंत्र...

Sunday 8 June 2008

ऐसी किफायत भला किस काम की...

अखबार में एक ख़बर छपी थी- पेट्रो उत्पादों की बढ़ती कीमतों को देखते हुए प्रधानमंत्रीजी की अपील पर कई मंत्रियों ने विदेश यात्रा रद्द कर दी। मंत्री महानुभावों का ये फैसला पेट्रोल कीमतों में वृद्धि के २ दिन बाद और प्रधान मंत्री की उस अपील के एक दिन बाद आया है जिसमे उन्होंने सभी मंत्रालयों से अपनी फिजूलखर्ची पर lagaam लगाने को कहा था। कई मंत्री विदेश जाने वाले थे और उन्होंने अपनी यात्रा रद्द कर दी। इसका मतलब ये कतई ये नहीं था की समुद्र पार करने के पाप से हमारे मंत्री महोदय लोग डर गए। इस डर को तो हम लोग सदियों पहले पीछे छोड़ आए हैं। कोई भी फिजूलखर्ची के पाप का भागीदार नहीं बनना चाहता।

केन्द्रीय पर्यटन और संस्कृति मंत्री को एक सप्ताह के दौरे पर अमेरिका जाना था। वहाँ सैन फ्रांसिस्को और लास अन्जिलिस में विश्व कुचिपुरी नृत्य महोत्सव और भारतीय मूल के फिजिशियनों के अमेरिकी संघ के समारोह में शिरकत करनी थी। मंत्री महोदय ने अपनी ये यात्रा देश के लिए पैसा बचाने के लिए रद्द कर दी। यात्रा टालने वाला दूसरा मंत्रालय है जहाजरानी एवं सड़क परिवहन मंत्रालय। मंत्री महोदय को अगले हफ्ते एक प्रतिनिधिमंडल के साथ फिनलैंड जाना था जहाँ परिवहन सहयोग के लिए समझौते पर haस्ताक्षर होने थे, फिजूलखर्ची रोकने के नाम पर ये यात्रा भी टाल दी गई।

देश हित के अपनी फिजूलखर्ची न्योछावर करने करने वाला तीसरा मंत्रालय है ख़ुद पेट्रोलियम मंत्रालय। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवदा को २ दिन की टोकियो यात्रा पर जाना था जहाँ जी-८ मिनिस्त्रिअल मीटिंग में हिस्सा लेना था। उनके साथ उनके अधिकारियों का एक बड़ा दल भी जा रहा है। प्रधानमंत्री जी की अपील के बाद देवरा द्रवित हुए और अपनी यात्रा रद्द कर दी। राज्यमंत्री दिन्षा पटेल को देश का प्रतिनिधित्व करने को कहा गया। लेकिन देशभक्ति की बात उनके जेहन में भी समा गई थी और उन्होंने भी प्रधानमंत्रीजी की अपील का अनुसरण करते है विदेश यात्रा पर जाने से इनकार कर दिया। अब इस दल का नेत्रितव निदेशक स्तर के अधिकारी करेंगे।

दुनिया में बहुत सारे देश हैं लेकिन मितव्ययिता के लिए इतना बड़ा कदम शायद ही किसी और देश ने उठाया हो। अब जाकर समझ में आ रहा है की भारत को देशभक्तों का देश ऐसे ही नहीं कहा जाता। इन उदाहरणों से prerna लेकर अब देश के तमाम मंत्रालय अपने विदेश दौरे और शायद अपने घरेलु दौरों पर लगाम लगायेंगे। आगे चलकर सभी मंत्रालय अपने काम बंद कर फिजूलखर्ची रोकेंगे। any देशों के लिए भी महंगाई से लड़ने के लिए एक अचूक हथियार साबित होगा। हो सकता है रेल मंत्रालय की कहानी की तरह मितव्ययिता की ये कहानी भी मशहूर हो जाए। और तमाम बिजनेस स्कूल के छात्र प्रबंधन के इस गुर को सिखने के लिए भारत की ओर दौड़ लगाने लगें।...

Tuesday 3 June 2008

मुफलिसी की गिरफ्त में है दुनिया की १० करोड़ आबादी!

""वह सुबह कभी होगी तो देखूँगा,
अभी तो घने अंधकार में ढूँढ रहा हूँ सघनता से
अपने हिस्से की रोशनी!!

...इटली की राजधानी रोम में इन दिनों 'हंगर सम्मिट' यानि की भूख पर बहस-मुबाहिसा चल रहा है। पुरी दुनिया के विद्वान भूख के कारणों और इसे मिटाने के उपायों पर चर्चा कर रहे हैं। दुनिया में खाद्दान संकट कितनी गंभीर है इस बात का अंदाजा संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के प्रमुख ज़ाक डियूफ़ के बयान से होता है। उन्होंने कहा की विश्व बिरादरी को भुखमरी मिटाने के लिए तुरंत कदम उठाने होंगे और इसके लिए 20 से 30 अरब डॉलर की ज़रूरत होगी। ये चिंता वाजिब भी है, जाकने साथ ही दुनिया के कई हिस्सों में भोजन के लिए हुई हिंसा का उदाहरण देते हुए कहा की इससे पहले की हालत काबू से बाहर चले जाए कदम उठाने होंगे।

विश्व मंच पर ये चिंता भी यूं ही नहीं उठाई जा रही है। हेती, फ़िलिपींस और इथियोपिया जैसे देशों में खाने के सामान के आसमान छूते दाम की वजह से दंगे भी हुए हैं। पिछले 12 महीनों में खाद्य पदार्थों के दाम में औसतन 56 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है। गेहूँ के दाम में 92 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है, चावल के दाम 96 फ़ीसदी बढ़ गए हैं। दुनिया भर में वर्ष 2005 और 2007 के बीच गेहूँ, मक्का और तिलहन फ़सलों के दाम लगभग दोगुने हो चुके हैं। विश्व खाद्य संगठन की वार्षिक अनुमान रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2017 तक गेहूँ की क़ीमतों में 60 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है और वनस्पति तेल उस समय तक लगभग 80 प्रतिशत महंगा हो सकता है। खाद्य और कृषि संगठन ने चेतावनी दी है कि अगर खाद्यान्न की पैदावार बढ़ाने और उन लोगों तक इसे पहुँचाने का इंतज़ाम नहीं किया गया तो हालात बद से बदतर हो सकते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इस खाद्यान्न संकट ने 10 करोड़ लोगों को भुखमरी की तरफ़ ढकेल दिया है। आंकड़ों के अनुसार इस साल ग़रीब देशों को खाद्यान्न आयात करने के लिए 40 प्रतिशत ज़्यादा खर्च करना पड़ा है। खाद्य और कृषि संगठन ने दानकर्ता देशों से माँग की है कि वो विकासशील देशों की और अधिक मदद करें ताकि किसान बीज, खाद और किसानी से जुड़ी दूसरी चीज़ों को खरीद सकें।

रोम में चल रहे इस सामेलन में भुखमरी मिटाने के लिए जिस पैसे की जरूरत बताई जा रही है, उसे जुटाना भी इतना आसान नहीं है। सवाल है की आमिर देश अप्नेलोगों को खाना खिलाने में सक्षम हैं और गरीब देश इतनी बड़ी रकम नहीं जुटा सकते। लेकिन अगर दुनिया में हथियारों की खरीद पर गौर किया जाए तो आँखे खुली रह जायेगी। यही दुनिया जो अपने भूखे लोगों को खाना खिलाने के लिए 20 से 30 अरब डॉलर जुटा पाने में असहाय दिख रही है उसी दुनिया ने वर्ष २००६ में हथियार खरीदने पर २०० अरब डॉलर खर्च किए।

ऐसा भी नहीं है की इस हालत में जल्द ही कोई बदलाव आने वाला है। संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि खाद्य पदार्थों की बढ़ी हुई क़ीमतें कुछ और समय तक टिकी रह सकती हैं क्योंकि विकासशील देशों से माँग बढ़ रही है और उत्पादन की लागत भी बढ़ रही है। अगर वाकई हम इस समस्या से निपटने के लिए गंभीर हैं तो हमे जहाँ अनाज की पैदावार बढानी होगी वहीं सभी तक भोजन पहुंचे इसकी भी व्यवस्था करनी पड़ेगी...

वह सुबह कभी होगी तो देखूँगा।
अभी तो घने अंधकार में ढूँढ रहा हूँ सघनता से
सबके हिस्से की पीड़ा॥""