Friday 7 January 2011

आने वाली पीढियों के लिए आज का इतिहास..!

फर्ज करिए २०५० की एक सर्द सुबह में जब भारत का कोई बच्चा स्कूल जायेगा और उसके हाथों में भारतीय इतिहास के कालखंड १९९०-२०१० के बीच के गौरवमय इतिहास की पुस्तक की विषय सामग्री कुछ इस तरह की होगी.
"शुरूआत करते हैं १९९० के दशक की शुरुआत से जब देश ने वैश्विकरण और उदारीकरण का दामन थामकर सुपरपावर बनने का सपना नया-नया ही संजोया था। अभी कुछ साल पहले ही देश ने खुद की सुरक्षा के लिए विदेश से बोफोर्स नाम का आधुनिक प्रक्षेपास्त्र मंगाया था लेकिन इस सौदे ने देश को घोटाला नामक एक नया शब्द दिया जो कि आने वाले कई दशकों तक देश और दुनिया में भारत का नाम रौशन करता रहा। जिस भारत के नाम पर इससे पहले केवल एक जीरो की खोज का क्रेडिट था उसे इस नए शब्द ने एक बार फिर दुनिया में सर ऊंचा उठाने का हौसला दे दिया। जिस भारत को कभी पश्चिमी दुनिया सपेरों का देश कहा करती थी उन फिरंगियों को भारत के महान घोटालेबाज विभुतियों ने घोटाला नामक इसी हथियार से कुछ ही सालों में नतमस्तक कर दिया। देश में वैश्विकरण लाने वाले उस दौर के हमारे हुक्मरानों ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को सुरक्षित रखने के लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में लोकतांत्रिक भावना को और मजबूत करते हुये सांसद रिश्वत कांड की नई इबारत लिख डाली। अनाज उत्पादन के लिए किसानों को मिलने वाले यूरिया में घोटाला जैसी महत्वपूर्ण परियोजना को कार्यान्वित करने का श्रेय भी इसी दौर के हुक्मरानों को जाता है। फिर तो क्या कहने देश में घोटालों के विकास को जैसे पंख लग गये। शुरूआती कारनामों के नक्शेकदम पर चलते हुये हमारे शूरवीरों ने शेयर घोटाला, संचार और न जाने कितने घोटालों की कहानी लिख डाली। मलाईदार और रसूखदार पदों पर बैठे लोगों के यहां से छापों में बोरो में भर-भरकर नोट और सोने-चांदी के चप्पल-जूते मिलने लगे। जिस भारत की जनता अपने देश के बारे में ये सच्चाई भुलने लगी थी कि कभी भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था उन्हें हमारे इन शूरवीरों ने फिर से एहसास दिलाया कि भारत गरीब नहीं बल्कि अभी भी सोने की चिड़िया ही है।
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देश के लाल इतने से ही रूकने वाले नहीं थे उन्होंने प्रगति की रफ्तार थमने नहीं दी। इसी दौर में देश ने सही मायनों में समाजवाद को अपनाया। समाजवाद के नाम पर सत्ता में नये-नये शामिल हुक्मरानों ने भी प्रगति में योगदान देना शुरू किया। किसी ने पशुओं का चारा डकार लिया तो किसी ने सड़क बनने के लिए काम आने वाला अलकतरा तक अपने गले में उतार कर दुनिया को आसन्न संकट से वैसे ही बचा लिया जैसे भागवान शिव ने समुद्र मंथन में निकले विष को अपने गले में उतारकर ब्रहांड की रक्षा की थी। आखिर पशु चारा खाकर करते ही क्या और अलकतरे से बनने वाली सड़क ही कौन सी अनश्वर साबित होने वाली थी. कुछ ही सालों में उनमें गढ्ढे बन जाते और जनता को उन्ही गढ्ढों से होकर रोजाना दफ्तर और स्कूल जाना पड़ता। खैर हमारे हुक्मरानों ने वक्त से पहले ही अपनी जनता का दुख हर लिया।
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१९९० के इस गौरवमयी दशक के समापन के बाद भारत में सुपर पावर बनने का सपना(तब के कुछ सिरफिरे इसे महज वहम कहा करते थे) भी प्रबल हो चला था। इसी मजबूत इरादे के साथ देश ने २1वीं सदी का इस्तकबाल किया। देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के हृदय कहे जाने वाले संसद भवन में नोटों की गड्डियां लहराई जाने लगी। इसी दौर में देश में प्रोफेशनलिज्म आया...और हमारे जनप्रतिनिधियों ने संसद में जनहित से जुडे सवाल पूछने के लिए भी फीस लेनी शुरू कर दी। युद्ध-भूमि में देश की रक्षा के लिए जान गंवाने वाले सैनिकों के लिए मंगाये गये ताबूत में से भी मुनाफा निकालकर तब के रसूखदार लोगों ने प्रगति की एक नई परिभाषा दुनिया को दी। ऐसे वक्त में जब शेष दुनिया अंतरिक्ष विज्ञान, चांद तक पहुंचने और विज्ञान-तकनीक के विकास जैसी छोटी-छोटी चीजों में उलझी हुई थी तब हमारे देश के शूरवीरों ने मनी-मंत्र नामक विचारधारा की खोज कर उसे आगे बढ़ाया। उस दौर के एक महान विचारक का कथन--- 'पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं है' से उस दौर के उच्च विचारों का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसी दौर में स्पेक्ट्रम आवंटन जैसी अलौकिक और अदृश्य घटनाएं भी घटी। तरक्की की मिसाल तो देखिए कि जिन ध्वनि तरंगों को आम इंसान देख भी नहीं सकता उन्हें बेचकर हमारे हुक्मरानों(समझे नहीं... मतलब तब के किंग-क्विन) और नौकरशाहों(मतलब देवदूत टाइप) ने करोड़ों-करोड़ का मुनाफा बनाया। देश में परिवार संस्था तब इतनी मजबूत हुआ करती थी कि हुक्मरान शहीद जवानों के परिवारजनों के लिए बने आवासों को भी अपने सगे-संबंधियों को दे देते थे। परिवार को लेकर ऐसा लगाव शायद की तब किसी और देश में पाया जाता हो। तब देश में हजारों हजार करोड़ खर्च कर खेल-तमाशे हुआ करते थे और उसमें भी रईसी ऐसी कि पूरी दुनिया ने दांतों तले उंगली दबा लिया। तब देश इतना अमीर हुआ करता था कि विदेशों से आने वाले मेहमानों के लिए हर बंदोबस्त राजशी ठाट-बाट वाले हुआ करते थे। मेहमानों को देश का कोई गरीब नहीं दिख जाये इसके लिए पहले ही उन्हें सड़क किनारे से हटा लिया गया था और कूड़े-कबाड़े के ढेरों को सुंदर-सुंदर बैनरों से ढक कर देश को सुंदरता प्रदान की घई थी। ऐसी भव्यता थी कभी अपने देश की। देश की जनता अपने लालों के कारनामों की मुरीद बन गई और जगह-जगह मांग होने लगी कि घोटाला नामक इस आविष्कार को कानूनी रूप देकर पेटेंट करा लिया जाये, कहीं विदेशी लोग इसे हड़प कर हमारी बराबरी न करने लगें। आम-आदमी की भी तब काफी इज्जत थी। उनके खाने-पीने की चीजें जैसे प्याज, टमाटर और दाल जैसी चीजे रोजाना टीवी पर दिखाई जाती थी और तब के कृषि मंत्री देश के प्राचीन ज्ञान ज्योतिष विज्ञान में खूब भरोसा रखते थे। तब आम आदमी की समस्याओं के समाधान के लिए हुक्मरान ज्योतिष विज्ञान का खूब इस्तेमाल करते थे और जनता-जनार्दन सरकार के इस कल्याणकारी रवैये से काफी खुश थी। लोग जिंदगी से इतने निश्चिंत थे कि तब की राजनीतिक रैलियों में हजारों और लाखों की संख्या में लोग पहुंचते थे और राजनेताओं द्वारा दिये गये उपदेश को सुनकर अपना जीवन धन्य करते थे।
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२१वी सदी शुरू होते ही देश ने दूध की नदी बहने जैसी प्राचीन कहावतों से पीछा छुड़ाते हुये अभिजात्य वर्ग का टॉनिक कहे जाने वाली शराब की नदी बहाने का लक्ष्य प्राप्त कर लिया था। देश का हर हिस्सा इस मामले में समान गति से विकास कर रहा था। इस नए प्रकार का दूध पीकर लोग अपना दुख-दर्द भूल जाया करते थे।
नारी सश्क्तिकरण को भी तब हमने खूब बढ़ावा दिया था। मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी देश के लोगों को तब उत्साह से लबरेज रखने के लिए टॉनिक का काम किया करती थी। पूरा देश इन स्वरलहरियों पर झूम उठता था और जो खुश नहीं थे उन्हें राखी सावंत जैसी उस दौर की महान न्यायवादी महिलाओं के इंसाफ से उनका हक मिलता था। पूरे भारत भर में राम राज्य जैसा माहौल था। सही मायनों में उस दौर को देश के लिए गोल्डेन एज कहा जा सकता है।

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