Friday 19 August 2011

दीवालघड़ी की सूईंयां....मध्यवर्गीय जीवन पर आधारित हिंदी कहानी

दीवालघड़ी की सूईंयां

सोने का प्रयास करते-करते थक चुके रामजतन की निगाहें आखिरकार दिवार के सहारे टंगी घड़ी पर टिक गई। सुबह के चार बज रहे थे। आंखों से नींद गायब थी और दिल में सुकून नाम की कोई चीज नहीं थी। पिछले 18 घंटे से मन में एक ही सवाल कौंध रहा था कि सुबह 10 बजे तक नगरनिगम के अधिकारी को देने के लिए 3 लाख रुपये का जुगाड़ कहां से होगा? बेटे को आईआईएम में दाखिला दिलाकर कल हीं लौटे रामजतन ने अपनी पूरी सार्म्थ्य झोंककर फीस का जुगाड़ जैसे-तैसे किया था। पिछले साल बेटी की शादी के लिए घर और दूकान पर 7 लाख का कर्ज पहले ही ले रखा था। बेटे को एडमिशन दिलाकर घर लौटे तो दरवाजे पर नगरनिगम का नोटिस चस्पां देखा।

आनन-फानन में अपने परम मित्र परमानंद को लेकर निगम कार्यालय पहुंचे तो पता चला कि निगम की सर्वे टीम ने घर का नक्शा अवैध घोषित कर दिया है और 15 दिन में तोड़ने की कार्रवाई होगी। निगम का फरमान सुन रामजतन को अपने पांव के नीचे से जमीन खिसकती सी लगी। परमानंद जैसे-तैसे रिक्शे में उन्हें लादकर घर पहुंचे। उनकी श्रीमति कमला देवी ने सुना तो रो-रोकर पूरा मोहल्ला सर पर उठा लिया। खैर रोने-धोने से कुछ होने वाला तो था नहीं, सो परमानंद की सलाह पर रामजतन हर समस्या की तोड़ देने वाले मोहल्ले के छुटभैये नेता कल्लन काका के यहां पहुंचे और अपनी आपबीती सुनाई। उम्मीद के अनुरूप काका ने निराश नहीं किया और उन्हें लेकर इलाके के पार्षद के यहां पहुंचे। पार्षद महोदय ने उनकी बात सुनकर पहले तो व्यवस्था की खराबी और भ्रष्टतंत्र को खूब कोसा फिर फोन से निगम के एक वरिष्ठ अधिकारी से बात की। बात पूरी कर फोन रख पार्षद महोदय अपनी ओर उम्मीद भरी टकटकी लगाए रामजतन की ओर मुखातिब हुए और कहा कि अधिकारी अवैध मकान की सूचि से आपका नाम हटाने के लिए 4 लाख रुप्ये की मांग कर रहा है लेकिन मेरे कहने पर वह 3 लाख पर मान गया है। हां, लेकिन शर्त यह है कि पैसे कल सुबह 10 बजे देने होंगे वरना सूची वह ऊपर भेज देगा।

रामजतन की हालत ऐसी मानो काटो तो खून नहीं। नेता जी को ऊपरी मन से धन्यवाद देकर वहां से निकले। मन बेचैन हो गया। सूरसा के मुंह सा ये सवाल सामने तैर गया कि जिस घर को बनाने के लिए जिंदगी के 30 सालों की पूरी मेहनत की कमाई उन्होंने खपा दी उसी को बचाने के लिए अब 3 लाख रुप्ये कहां से लाएं? वे भी महज 24 घंटे के भीतर? हाथ वैसे ही आजकल खाली है। रास्ते में कल्लन काका ने हिसाब समझाया कि 30 लाख कीमत वाले घर को बचाने के लिए 3 लाख का सौदा महंगा नहीं है। इस बीच चार लाख से घटाकर तीन लाख कराने वाले नेता जी का अहसान गिनाने से भी वे नहीं चूके।

पूरे दिन भर हाथ-पांव मारने के बावजूद रामजतन को इन पैसों के बंदोबस्त होने की कोई संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही थी। पूरी रात जगी आंखों में काट चुके रामजतन की निगाह फिर दीवालघड़ी पर जा टिकी। साढ़े चार बज गये थे और घड़ी की सूईंया अपनी गति में भागी जा रही थीं। मन हुआ कि उठकर दीवालघड़ी की सूईंयों को थाम लें ताकि इस रात की कभी सुबह न हो। रात ऐसे ही चलती रहे और किसी नगरनिगम का कोई कार्यलय फिर कभी न खुल सके। रामजतन को अपनी समस्या का यही एकमात्र हल अब दिख रहा था। लग रहा था जैसे काली स्याह रात और अनंत आकाश में उनके हाथ अपने-आप दीवालघड़ी की सूईयों की ओर बढ़े चले जा रहे हैं और सूईंयां उनसे दूर कहीं छिटकती जा रही हों।

Tuesday 16 August 2011

हमारा नेतृत्व भूल गया है अपना काम...अन्ना जैसो को तो आगे आना ही पड़ेगा!

15 अगस्त 2011 को ऐसा पहली बार हुआ कि लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए माननीय प्रधानमंत्रीजी की हर एक बात ऐसी लग रही थी जैसे कोई झूठ का पुलिंदा पढ़ रहा हो। विकास और इमानदारी की एक-एक बात मन को ऐसे चुभ रही थी जैसे भुख से बिलखते किसी इंसान के सामने कोई आर्थिक तरक्की के अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों और परिभाषाओं का ज्ञान बघार रहा हो। हर साल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर तरक्की और विकास के नारों से लबरेज भाषण को सुन-सुनकर पक चुकी देश की जनता अब ऐसे नारों को सुनना पसंद नहीं करती। ये बात हमारे हुक्मरानों को अब समझ जाना चाहिए।

{महंगाई रोकने के लिए हरसंभव कदम उठाए जा रहे हैं।
रोजगार के अवसर और समग्र विकास के लिए योजनाएं बनाई जा रही है।
भारत को शिक्षा का केंद्र बनाने के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे हैं।
गांवों का विकास सरकार की प्राथमिकता है।
और
कृषि के विकास के लिए दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है।
आदि-आदि जैसे भाषण रोज-रोज सुन-सुनकर लोग वाकई बोर हो गये हैं।}

क्योंकि रोज-रोज भाषण देने वाला हमारा नेतृत्व कभी ना तो कुछ ठोस करता हुआ दिखता है और ना ही उसकी ऐसी नियत दिखाई पड़ती है। आज ये सोच केवल मेरी नहीं है बल्कि देश में लगातार बेकाबू होती महंगाई, लूट-खसोट, बेइमान और भाई-भतीजावाद वाली इस व्यवस्था में जी रहे देश के हर आम आदमी की आज यही सोच बनती जा रही है। आज हमारे देश के नेतृत्व को इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि आखिर क्या कारण है देश में ऐसी निराशावाद के बढ़ने की। क्यों अण्णा हजारे, अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी जैसे लोगों की अपील पर लोग अपने द्वारा चुनी हुई सरकारों के खिलाफ खड़े होते जा रहे हैं।

यहां असल सवाल उठ रहा है नेतृत्व के काम-काज और उसके द्वारा निभाई जा रही जिम्मेदारी को लेकर। आखिर किसी भी लोकतांत्रिक समाज में समाज या राष्ट्र के नेतृत्व का काम क्या है?
हमें ये बात अब साफ करना होगा कि कोई भी समाज कुछ लोगों को चुनकर सत्ता सौंपता है और नैतिकता और अनुशासन के सामुदायिक नियमों का इसलिए स्वेच्छा से पालन करता है ताकि ये चुने हुए लोग उनके सामूहिक उन्नति के लिए काम करे। सामूहिक तरक्की की योजनाएं बना सकें, उन्हें लागू कर सकें, वर्तमान जीवन की सामूहिक सुविधाओं जैसे अस्पताल, सड़क, स्कूल आदि का विकास कर सके। समाज के बेहतर भविष्य के लिए योजनाएं बना सके। ताकि वर्तमान के साथ-साथ आने वाली पीढ़ियों के लिए भी दुनिया को सुरक्षित और बेहतर बनाया जा सके। लेकिन क्या हमारे देश के हुक्मरानों में ऐसी कोई भावना, दूरदृष्टि या योजना दिखाई देती है या फिर ऐसा कुछ करने का नियत दिखाई देती है? बिल्कुल नहीं। बस उनके भाषणों में तरक्की और सबके उन्नयन की बातें होती हैं..एक तरफ देश भर में लोग भूखमरी के शिकार हो रहे हैं, बेरोजगारी और असुरक्षा बढ़ती जा रही है, किसान अपनी जमीनों से बेदखल किए जा रहे हैं, खेती की बदहाली बढ़ती जा रही है, देश कर्ज में डूबता जा रहा है और दूसरी ओर हमारी व्यवस्था के संचालक भ्रष्टाचार में लिप्त हुए पड़े हैं और इन्हें जनता की आवाज सुनाई ही पड़ती। सिविल सोसाइटी के सदस्य जनता की इसी पीड़ा की आवाज बनकर सामने आए हैं और अगर जल्द इसे नहीं सुना गया तो सत्ते के नशे में चूर ये राजनीतिक शक्तियां जनता के प्रत्यक्ष गुस्से का भी जल्द शिकार बनने लगेंगी। इसलिए जरूरत है कि वक्त रहते ये संभल जाएं और देश की तरक्की के लिए इमानदारी के साथ काम करना सिख जाएं।

Friday 12 August 2011

क्यां नशा हमारे लिए आधुनिकता का प्रतीक बन चुका है?


रोहन की बर्थडे पार्टी थी और सभी दोस्तों की जिद पर उसने पार्टी का प्लान कर लिया. घर से अनुमति लेकर वह दोस्तों के साथ पार्टी के लिए निकला. उसने कभी कोई नशा नहीं किया था लेकिन दोस्तों के बार-बार ये कहने पर कि अरे बीयर में नशा थोड़े ही होता है उसने बीयर पी ली. उसके दोस्त अक्सर कहते थे कि अरे यार इन पुराने ख्यालों से बाहर निकल और जिंदगी के थोड़े मजे लिया कर. बार-बार ऐसा कहने पर उसने इसे आधुनिकता का प्रतीक मान लिया. इस बात के बीते अभी करीब एक साल हुए थे और इस एक साल में दोस्तों की संगत में रोहन ने शराब पीनी भी शुरू कर दी. पॉकेट खर्च के लिए घर से मिलने वाले थोड़े से पैसे से ये सारी जरूरते पूरी होनी संभव नहीं थी इसलिए रोहन और उसके दोस्तों ने स्नैचिंग की वारदातों को अंजाम देना भी शुरू कर दिया. उसके प्रतिभावान होने और हमेशा कालेज की पढ़ाई में व्यस्त रहने की ढोल पीटने वाले उसके घरवालों को इन सब बातों का पता तब लगा जब पुलिस ने दोस्तों समेत उसे स्नैचिंग के केस में धर दबोचा.

दिल्ली जैसे शहर में रोहन जैसी कहानी आपको हर गली-मोहल्ले में देखने को मिल जाएगी. सवाल यहाँ ये उठता है कि आखिर इन सब प्रवृतियों के बढ़ने का कारण क्या है? नशे की बढती लत पर रोक लगाने में हमारा समाज क्यूँ विफल रहा है? आधुनिकता के हमारे प्रतिमान ऐसे क्यूँ हैं? तमाम कानूनी रोक-थाम और पाबंदियों के बावजूद हम नशाखोरी को रोक क्यों नहीं पा रहें?

7 अगस्त को दिल्ली के एक स्‍कूल के परिसर में फ्रेंडशिप डे के नाम पर शराब पीते हुए 14 छात्राएं पकड़ी गईं। नागरिक उड्यन मंत्रालय के आंकड़ो पर अगर गौर करें तो पिछले तीन सालों में शराब पीकर उड़ान भरने की कोशिश करने वाले 67 पायलटों को परीक्षण के दौरान पकड़ा गया। सोचिये अगर ये पाईलट विमान उड़ाने में सफल रहते तो सैकड़ों लोग इनके भरोसे ही हवाई सफ़र पर होते. देश की राजधानी दिल्ली में ब्रह्मपुरी में हुआ शराब काण्ड या फिर देश के विभिन्न हिस्सों में अक्सर होने वाले शराब काण्ड जिनमे दर्जनों लोग अपनी जान गवाँते रहे हैं. या फिर हर बार नए साल के जश्न के पहले राजधानी दिल्ली में पुलिस द्वारा शराबियों और नशाखोरों पर शिकंजा कसने की प्रबल तैयारियां दर्शातीं हैं कि हम किस हद तक इन बुराइयों को अपने समाज की संरचना में बसा चुके हैं और ये बुराइयाँ ही अब हमें डरा रही हैं. जिनपर अब हम काबू नहीं पा सकते और जिनसे बचाने की गुहार लेकर अब हमें पुलिस प्रशासन की शरण में जाना पड़ रहा है.

आज ये बुराई केवल दिल्ली जैसी शहर की समस्या नहीं है बल्कि गाँव-देहात तक आज इसकी एक-समान पकड़ है. गांवों में शाम होते ही सड़क किनारे और ठेके के दुकानों पर ऐसे रेले उमड़ पड़ते हैं जैसे किसी स्कूल का नज़ारा हो और बिना अटेंडेंस वाला नुकसान उठाने को कोई भी तैयार न हो. खासकर होली जैसे त्यौहार और नए साल के जश्न को तो लोग शराब आदि चीजों के बिना मनाने की आज कल्पना भी न करें. आधुनिक होते हमारे समाज ने नशे को केवल शराब के दायरे तक ही सिमटे नहीं रहने दिया है. आज इसके तमाम आधुनिक प्रारूप हमारे सामने हैं- हेरोइन, स्मैक, गांजा, ब्राउन शुगर, चरस आदि के रूप में.

ऐसे में राजधानी दिल्ली में हाल में सामने आये कुछ मामलों पर नज़र डाल लेना जरूरी हो जाता है. 8 अगस्त २०११ को  दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने सवा करोड़ की हेरोइन के साथ तीन डीलरों को गिरफ्तार किया। ये लोग कानपुर के एक बड़े हेरोइन तस्कर से कोरियर के जरिए हेरोइन मंगवाते और दिल्ली के विभिन्न इलाकों में उसकी आपूर्ति करते थे। 4 जुलाई को क्राइम ब्रांच ने दो किलो हेरोइन जब्त कर दो अभियुक्तों को गिरफ्तार किया। पुलिस ने हेरोइन की कीमत दो करोड़ रुपये बताई। २८ जुलाई को स्पेशल सेल ने एक किलो हेरोइन के साथ एक धार्मिक शिक्षक को गुरु तेग बहादुर अस्पताल के पास से गिरफ्तार किया। सेल ने जुलाई के पहले हफ्ते में तीन को गिरफ्तार कर बवाना में ड्रग्स बनाने की फैक्टरी का पर्दाफाश किया था। यह गिरोह बदायूं, बाराबंकी व बरेली में अफीम की खेती करने वाले किसानों से अवैध रूप से अफीम खरीदकर अपने घर में हेरोइन तैयार करता था। पुलिस इनसे अब तक 9.622 किलो हेरोइन बरामद कर चुकी है। दिल्ली में करोडो के ड्रग्स के साथ तस्करों के पकड़े जाने के मामले हर दो-चार दिन में सामने आते रहता है.


देश की राजधानी में ड्रग्स जब्त होने के ये चंद मामले हैं और ये भी कोई छिपी हुई बात नहीं है कि जितना माल पकड़ा जाता है उसका कई-कई गुना यहाँ खप जाता होगा. वरना ये तस्कर कभी इस काम से नहीं जुड़ते. एक तरफ जहाँ पूरी दुनिया आर्थिक मंदी के प्रभाव से जूझ रही है वहीँ इनका कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है. एक तरफ सरकार का अब भी यही नारा है कि नशा कोई भी हो वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है वहीँ इससे प्राप्त होने वाला राजस्व सरकारें दोनों हाथों से बटोर रही हैं. दिल्ली में १ अप्रैल से १२ जुलाई तक शराब बिक्री से आबकारी विभाग ने 603.31 करोड़ रूपये का राजस्व प्राप्त किया जो कि पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 16.81 फीसदी अधिक है. यहां सवाल ये उठता है कि अगर आर्थिक लाभ को सामाजिक नफे-नुकसान से ऊपर उठकर देखा जाने लगा गया तो कैसे नशाखोरी जैसी समस्याओं पर काबू पाया जा सकेगा। ऐसे में ये बात जानना भी जरूरी हो जाता है कि राजधानी में आखिर इतनी बड़ी मात्रा में शराब और ड्रग्स कहाँ खप रहा है? और कौन इसका ग्राहक है? ये एक आर्थिक से बड़ा सामाजिक सवाल बन जाता है?

कई लोग तर्क देते हैं कि नशाखोरी के पीछे दर्द या गम को भुलाने की इंसानी मानसिकता काम करती है। कई लोग इन उत्पादों को शक्तिवर्द्धक करार देने का भी प्रयास करते हैं। इस बात में पड़ने से अच्छा है इसके मानसिक प्रभावों को देखा जाये। नशा इंसान की मानसिक स्थिति को बदल देता है। इंसान के काम करने की क्षमता कम हो जाती है। लोग नशे की लत में अपना घर-परिवार और करियर तक तबाह कर डालते हैं। ऐसे उदाहरण हमारे समाज में, आस-पास में ढेरो मिल जाएंगे जिसमें लोगों ने नशे की लत के चलते अपनी हंसती-खेलती जिंदगी तबाह कर डाली।

आज नशा शहरी संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। इसे करने वाले अपनी गलती छुपाने के लिए इसे आधुनिकता से जोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि समाज से इस मानसिकता के खिलाफ आवाज उठे। ताकि हमारे किशोर और आने वाली पीढ़िया अच्छे और बुरे का फर्क पहचान सके।

इन बातों के साथ अपनी बात खत्म करना चाहुंगा...
नशा कैसा भी हो, बुरा ही होता है। यह आदमी को बर्बाद कर देता है। इसलिए जरूरी है कि इंसान नशे से दूर रहे और अगर लत लग भी जाये तो पूरी कोशिश कर इसके चंगुल से आजाद हो जाये। यह मुश्किल जरूर है, मगर नामुमकिन नहीं।