Tuesday 16 February 2010

क्या पूरे भारत को मिल गया रोटी, कपड़ा और मकान?

हमारे यहाँ जनता और उसकी समस्याओं को देखने का चश्मा काफी अलग-अलग नंबर का होता है, इतना ही नहीं इसे देखने वाले भी अलग-अलग वेराईटी के होते हैं तभी हमारा देश विविधता में एकता के लिए दुनिया भर में मशहूर है. आज समाचार पत्र में देश की तकनीकी क्रांति के एक बड़े ही काबिल शख्शियत नंदन निलेकनी जी का एक बयान छपा था...उनकी काबिलियत से प्रसन्न होकर इधर भारत सरकार ने उन्हें देश में रह रहे सभी लोगों को एक एकीकृत पहचान नंबर दिए जाने के अपने अभियान का मुखिया बना दिया है इसलिए उनके बयान पर गौर करना बहुत जरूरी हो जाता है..उन्होंने कहा कि देश के लिए रोटी, कपड़ा और मकान का नारा ६० और ७० के दशक का है और अब पुराना पड़ गया है, इतना ही नहीं देश उसके बाद के दौर यानी कि बिजली, सड़क और पानी के नारे के दौर से भी आगे निकल रहा है और अब देश के लिए नया नारा है- यूआईडी नंबर, बैंक अकाउंट और मोबाइल फोन...जो इससे कदमताल मिलाकर चलेगा अवसर उसी के होंगे...!
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यहाँ ये समझना बहुत जरूरी है कि भारत केवल दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर और अहमदाबाद जैसे शहरों से नहीं पूरा होता बल्कि देश की करीब ७० फीसदी जनता आज भी ६०,००० गांवों में रहती है। इन गांवों का कितना विकास हुआ है ये भी किसी से छुपी नहीं है। देश के विकास के बारे में यहाँ ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है आकड़े बनाने वाले उसकी सच्चाई से भी अच्छी तरह से परीचित हैं। भ्रष्टाचार रुक नहीं सका है, देश को पूरा साक्षर बनाने के लिए हम आज भी जूझ रहे हैं, बच्चों को खाना का लालच दिखा कर भी स्कूल जाने के लिए तैयार नहीं किया जा सका है, गाँव में सडकों की क्या स्थिति है सब जानते हैं, बिजली कभी-कभार ही वहां दर्शन देती है...स्वास्थ्य सुविधाए देने के नाम पर अप्रशिक्षित लोग गाँव के स्वास्थ्य केन्द्रों में तैनात हैं और कुर्सियां तोड़ रहे हैं, लोग अपनी जान जाने के डर से नीमहकीम के यहाँ से दवा लेना पसंद करते हैं लेकिन सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों तक जाना उन्हें गवारा नहीं है. राजनीतिक लोकप्रियता को ध्यान में रखकर राज्य सरकारों ने शिक्षा के स्तर का सत्यानाश कर रखा है...बच्चों को पढ़ाने के लिए ऐसे लोगों को तैनात कर दिया जा रहा है जिन्हें शुद्ध रूप से शैक्षिक तकनीक का कोई पता भी नहीं है इसके बाद जो स्तर बचा भी था वो मिड डे मील के नाम पर बर्बाद कर दिया गया. बच्चों की तो छोडिये शिक्षकों तक का ध्यान स्कूल में बन रहे खाने पर ही लगा रहता हैं ऐसे में लोग पढेंगे और पढ़ाएंगे क्या ख़ाक. इसपर आप सोचते हैं कि बहुत बड़ा बदलाव ला रहे हैं।
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रोटी, कपड़ा और मकान जिन्हें निलेकनी जी ६०-७० के दशक का नारा बता रहे हैं वो आज भी देश की अधिकांश आबादी के लिए सबसे बड़ी चिंता है. रोजगार के लिए और सामाजिक सुरक्षा के लिए आपके पास कोई ढांचा नहीं है...अधिकांश आबादी को पता नहीं की अगले हफ्ते वो क्या खायेंगे. इसके बाद के नारे सड़क, बिजली और पानी की तो अभी बात ही छोड़ दीजिये. गाँव की क्या कहें देश की राजधानी दिल्ली में भी कई ऐसे इलाके हैं जहाँ लोग आधी रात को उठकर पीने के पानी के आने का इन्तेजार करते हैं और गर्मियों का मौसम आते हीं बिजली कटौती से लड़ने के लिए लोग रातभर सडकों पर नाईटवाक् करते हैं. ऐसे में सबको मकान कि तो बात ही छोड़ दीजिये...
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अब रही बात लोगों को यूआईडी नंबर, बैंक अकाउंट और मोबाइल फोन देने की तो शायद ये लाखों और करोड़ों लोगों के लिए अवसरों के द्वार खोलें लेकिन उससे भी ज्यादा लोग ऐसे हैं जिनके लिए अभी पुराने नारे बेमानी नहीं हुए हैं और उनके लिए आज भी इन नए नारों से पुराने नारे ज्यादा जरूरी हैं। देश की सबसे बड़ी बिडम्बना यही है कि देश को देखने और उसके विकास का काम शहरी और एलिट वर्ग के हाथों में है और गाँव का जो प्रतिनिधि राजधानी तक पहुँचता है वह या तो जनता की समस्याओं को उठा नहीं रहा है या वो भी इसी लूट-पाट में शामिल हो जा रहा है और सरकारी खाते और कागजों में हमारा देश, उसकी ग्रामीण आबादी और भूखे-नंगे लोग भी तेजी से तरक्की करते जा रहे हैं और देश को महाशक्ति बनाने के सपने( कई लोग इसे मुगालता भी मानते हैं) में जी रहे हैं.

Monday 8 February 2010

लो पाकिस्तान ने दिखा दी अपनी जात, कर लो अब "अमन की आशा"

इधर अख़बार और टीवी में लगातार एक विज्ञापन दिखाई दे रहा है...अमन की आशा... जो भारत और पाकिस्तान के बीच अमन की आशा जगाने के लिए कुछ अति-उत्साही मीडिया संगठनों के द्वारा चलाया जा रहा है. हमारे देश की संस्कृति में एक खास सीख हमेशा दी जाती है कि सामने वाला चाहे कितना भी बुरा क्यूँ न हो आप उससे हमेशा अच्छे से पेश आओ. इसी रास्ते पर चलते हुए हमने बार-बार मार खाकर भी पाकिस्तान के आगे दोस्ती के हाथ बढ़ाये. संसद पर हमला हुआ तो कई माह तक सेना सरहद पर तैनात कर हम पाकिस्तान से उम्मीद करते रहे कि अब सुधरेगा तब सुधरेगा...फिर मुंबई में जब आतंकियों ने दिन-दहारे कत्लेआम किया तब भी कई माह तक हम पाकिस्तान पर दबाव बनाने की जुग्गत भीडाते रहे और फिर आख़िरकार थक-हारकर बातचीत का प्रस्ताव कर दिया। हमले के बाद के इस एक साल में पाकिस्तान आतंकियों पर अपनी ओर से लगाम लगाने के लिए कुछ करना तो दूर हमारे बातचीत के प्रस्ताव का मजाक ही उड़ाने लगा. आम लोग ऐसा करें तो कुछ बात भी हो लेकिन वहां का विदेश मंत्री तक इस तरह की गैरजिम्मेदारी दिखा रहा है. तो कैसे होगा अमन...क्या हमेशा मार खाकर हम शांति की उम्मीद करते रहेंगे और यूँही हमारी पीठ में छुरा घोंपा जाता रहेगा.

पूरी दुनिया ने देखा कैसे पाकिस्तान से आये आतंकवादियों ने मुंबई में उत्पात मचाया फिर भी आज तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। ९-११ के बाद जिस अमेरिका ने अपनी मन-मर्जी के अनुसार चुन-चुनकर दुनिया के कई देशों और वहां शरण पाए आतंकियों को निशाना बनाया वही अमेरिका लगातार बयानबाजी कर पाकिस्तान के लिए ढाल बने रहा. जो कुछ उससे बचा वह भारत के परंपरागत दुश्मन चीन लगातार पाकिस्तान की पीठ थपथपाकर पूरा करता रहा. हम अमन की उम्मीद लगाये बैठे रहें और उम्मीद करते रहें कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश जरूर कुछ करेंगे. अब भाई कोई और क्यूँ हमारे लिए कुछ करेगा अगर हम अपनी सुरक्षा में हथियार नहीं उठा सकते तो कोई और थोडे ही हमारे लिए लड़ने आयेगा? इतना ही नहीं जब पाकिस्तान के साथ सरकारी तौर पर हमने सारे ताल्लुकात रोक दिए और देश में होने वाले क्रिकेट सीरीज में पाकिस्तानी खिलाडी नहीं चुने गए तब भी अमन पसंद जमात ने हो-हल्ला मचाया और कहते रहे कि सरहद पार सभी लोग आतंकवादी नहीं है. अब जब पाकिस्तान की हुकूमत हमारे वार्ता के प्रस्ताव का मजाक उड़ा रही है तो बताएं हमारे अमन की आशा के सिपाही कि अब क्या करना चाहिए. क्या अमन के लिए सभी भारतीय पाकिस्तान के आगे सर झुका कर खड़े हो जाएँ कि भाई लो जितनो को मार कर शांति मिलती हो मार लो लेकिन अमन की हमारी आरजू जरूर पूरी कर दो...