आज दुनिया के इतिहास में एक नया अध्याय जुडा। यूँ कहें तो दुनिया के सबसे मजबूत पद पर एक अश्वेत काबिज़ हो गया. ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए इसका जश्न मनाते दुनिया भर के लोग देखे गए. टीवी के कैमरों पर लोग ओबामा जिंदाबाद के नारे लगाते दिखें. पता नहीं पूरी दुनिया के लोगो को उनसे क्या उम्मीदें है. शायद ये वाजिब भी है अगर अमेरिका की सोच और उसकी काम करने का तरीका बदलता है तो उसका असर पूरी दुनिया पर होगा. अमेरिका की बदली हुई सीरत पूरी दुनिया की सूरत बदल सकती है और अब इस नैया की पतवाड़ ओबामा नामक उस मध्यवर्गीय परिवार से आए हुए नौजवान के हाथों में आ गई है जिसने इस पद को पाने के लिए एक लंबा रास्ता तय किया है. वो अमेरिका की आज़ादी के २१९ सालों में बाद और पहला अश्वेत राष्ट्र प्रमुख है. और शायद उसके संघर्षों को देखकर ही दुनिया को उससे ज्यादा उम्मीदें हैं.
लेकिन अमेरिकी चुनाव में इसी समय में हमारे यहाँ भी कई राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और आने वाले महीनों में देश केन्द्रीय नेतृत्त्व को भी चुनेगा. लेकिन जिस तरह से अमेरिका में लोग अपना प्रतिनिधि चुनते हैं उसके मुकाबले तो परिपक्वता में हम कहीं से भी उनके आसपास नहीं ठहरते. वहां राष्ट्रपति बनने में लिए पहले उम्मीदवार को अपने दल में एनी उम्मीदवारों से अपने आप को श्रेष्ठ साबित करना होता है फ़िर उसके बाद विपक्षी उम्मीदवार से उसे पुरे देश में सामने विभिन्न मसलों पर अपनी नीति पर बहस करनी होती है. वहां का मतदाता ये देखता है की जिन समस्याओं से वो जूझ रहे हैं उनसे निपटने में ये उम्मीदवार किस हद तक सफल हो सकता है. फ़िर अमेरिकी लोग अपना मतदान करते हैं. दूसरी ओर अपने नेतृत्व का चुनाव करते समय हम किन बातों का ध्यान रखते हैं शायद ही हम इसके बारे में जानते होंगे. कोई जाति में आधार पर वोट करता है तो कोई धर्म के आधार पर, तो कोई किसी एनी आधार पर. आज की तारीख में हम ये भी नहीं कह सकते कि बूथ कप्तचरिंग और बहुबल के कारण हम अपने पसंद कि उम्मीदवार नहीं चुन पाते. क्योंकि आज कि तारीख में चुनाव तैयारियां इतनी शक्त होने लगी हैं कि जो जिसे चाहे वोट कर सकता है. फ़िर भी हमारे प्रतिनिधि दागी छवि वाले लोग कैसे चुन लिए जाते हैं. शायद इसका जवाब है कि इसके लिए हम ही दोषी है. हम अपना प्रतिनिधि इसलिए नहीं चुनते कि वो हमारे लिए काम करेगा बल्कि हम इस लिए चुनते हैं कि वो राजनीति करेगा. जहिर सी बात है कि जब हम अपने लिए कुछ नहीं कर पाते तो हमारे द्वारा चुने गए लोग क्या करेंगे. हम नहीं बदलेंगे और इसी कारण हमारी राजनीति न तो जिम्मेदार होगी और ना ही हमारे प्रति उसकी जवाबदेही तय हो पायेगी. हम अमेरिका में ओबामा के जितने पर जश्न तो मन सकते हैं लेकिन हम अपने लिए एक ओबामा तलाशने के काबिल नहीं है इसी कारण हमारी बदहाली अब भी जारी है और शायद आगे भी तबतक जारी रहेगी जब तक हम ऐसे ही रहेंगे.
4 comments:
इसमें चुने जाने से ज्यादा उदासीनता का रोल है..जब लोग वोट देने न जाना फैसन और स्टेटस सिंबल मान बैठे हैं. चुनाव के दिन पिकनिक पर निकल लेते हैं मगर जन प्रतिनिधि चुनने के दायित्व का निर्वहन नहीं करते और बाद में एसी ड्राईंग रुम में बैठ कोसते हैं कि कैसे जन प्रतिनिधि हैं.
उदासीनता है नहीं, विवश बने हम मित्र.
वोट डालने से हमॆं, रोक रहे हैं विचित्र.
रोक रहे हैं विचित्र,वाम-पंथी सब गुंडे.
वोट-कार्ड भी बन नहीं पाया,रोकें मुन्डे.
कह साधक,इस मर्ज की दवा वोट है नहीं.
बदलूंगा सिस्टम को, उदासीनता है नहीं.
संदीप..सही सवाल उटाया आपने...हम अभी उतने परिपक्व नहीं हुए हैं। लेकिन शायद वक्त नजदीक आ गया कि हम भी इन भ्रष्ट राजनेताओं से निजात पा लें..थोड़ा वक्त जरुर लगेगा। इसमें कंम्पयूटर और इंटरनेट की बड़ी भूमिका होनेवाली है।हमने देखा है कि टेलिविजन के युग तक एक सीमित मात्रा में ही नेताओं को डराया जा सका है क्योंकि एक तो ये माध्यम बड़े निवेश होने की वजह से लोकप्रियता पाने की होड़ में अनाप-शनाप और सनसनीखेज चीजें ही दिखाने में लगा रहता है दूसरी बात ये इस पर नेताओं के नजदीकी लोगों का कब्जा है।
इंटरनेट का फैलाव होने दीजिए...नेट एक कम निवेश का माध्यम है। ये जब 25-30 करोड़ लोगों की पहुंच में आ जाएगा तो इन भ्रष्ट नेताओं की कहानिया रोज सामने आएंगी...और इन्हे मुंह छिपाने की जगह नहीं मिलेगी। तबतक शायद हमें इंतजार करना पड़े। और तबतक शायद हम आपसी जातिवाद में लड़कर थोड़े थक भी जांए...और हमें स्याह सफेद की पहचान हो जाए। आमीन।
वहाँ राजनीति ने रंगभेद को पराजित कर इन्सानी जीत हासिल की है। यहाँ जाति, धर्म और क्षेत्रीयता ने राजनीति को कब्जा रखा है।
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