Wednesday, 30 July 2008

"वोट के बदले नोट: ये दिल मांगे मोर"

चौपाल सजी थी, दिन २२ जुलाई २००८ का था। अब इस चौपाल का मतलब गाँव के चौपाल से बिल्कुल नहीं है। ये चौपाल भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चौपाल यानी लोकसभा थीयानी कि भारत में लोकतंत्र को चलाने वाली संस्था। इस शब्दावली के कुछ मायने हैं अर्थात ऐसी संस्था जो यहाँ की जनता को सत्ता में भागीदारी दिलाती हैयहाँ मेरा मकसद लोकतंत्र की परिभाषा बताना नहीं है बल्कि मैं जिस घटना का आगे वर्णन करने जा रहा हूँ उसका ताल्लुक इससे हैहां तो मैं बात कर रहा था चौपाल कीबकी निगाहें चौपाल में हो रही बहस पर टिकी थीआख़िर होती भी क्यूँ - बात ही कुछ इतनी गंभीर थीसरकार और विपक्ष के लोग परमाणु ऊर्जा जैसे गंभीर मसले पर आपस में उलझे हुए थेदेश को आधुनिक बनाने के लिए परमाणु उर्जा की जरुरत बताते हुए सत्ता पक्ष वाले किसी भी सूरत में अमेरिका के साथ परमाणु करार करने को जायज ठहरा रहे थेवही विपक्षी दलों के पास इसके विरोध के कई कारण थेइसी के साथ सरकार के बचने और गिरने का ०-२० मैच भी शुरू हो चुका थापूरा देश इस मामले को टकटकी लगाये देख रहा थाकोई टीवी पे चिपका था तो कोई रेडियो पे तो कोई इन लोगों के साथ ताजा ख़बर के लिए लगातार संपर्क बनाये हुए था


तभी टीवी पर माननीय कैमरे के सामने नमूदार हुए, उनके हाथों में नोटों के बंडल लहरा रहे थेये तीनो विपक्षी दलों के सांसद थेइनका आरोप था कि ये एक करोड़ रुपया उन्हें सत्ता पक्ष की ओर से वोट का बहिष्कार करने के लिए दिए गए थेये पहला मौका था जब संसद के अन्दर इस तरह से नोटों के बंडल लहराए गए थेपूरे देश में सनसनी फ़ैल गईइस घटना की आड़ लेकर विपक्ष ने वोट टालने कि मांग की और स्पीकर से जांच करवाने की मांग कीमांग ठुकरा दी गई, शाम हुई, मतदान हुई और सरकार भी बच गईसरकारी खेमे में जश्न का माहौल बना और बम-पटाके फोडे जाने लगेटीवी चैनलों पर ये ख़बर सबसे सनसनीखेज ख़बर बन गईतमाम नेताओं के बयां आने लगे, जनता जनार्दन की बाईट्स आने लगींएक चीज सब जगह देखने को मिली, परेशां सब थे लेकिन हैरान कोई थासबके सब ये मान के चल रहे थे- ये कौन सी नई ख़बर हैये तो कई दिनों से टीवी चैनलों में चल रहा था की सौदेबाजी चल रही है तो इससे हमारे देश की जनता को hairaani हो रही थी और इसमे शामिल लोगों को शर्म रही थी।। लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोतकर सब खुश थेपुरी दुनिया को हमने दिखा दिया था की हम ऐसे ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र नहीं कहे जाते


सरकार के बचने की खुशी लिए मैं घर से बाहर निकला और ऐसे मौके पर अमूमन चाय की दूकान
या फ़िर नाई की दूकान मेरा अड्डा हुआ करता है. जैसे ही मैं नाई की दूकान पर पहुँचा. नाई दोहरी खुशी के साथ मेरी ओर बढ़ा. मेरी खबरों के प्रति रूचि को जानते हुए उसे जल्दी थी की ये ख़बर मुझे जल्दी से जल्दी सुना दे. हड़बड़ी में वो बोला भइया सरकार तो फ़िर से आ गई. आपने देखा संसद में पैसे लहरायें जा रहे थे. किसी भी तरह सरकार बच गई. मैंने कारण जाने का प्रयास किया और कहा की अब चलो एटमी डील हो जाएगा. वो मेरी ओर ऐसे देखने लगा जैसे किसी नए जानवर का नाम मैंने ले लिया हो. यही वो शब्द था जिसके लिए कहा जा रहा था की डील देश का भविष्य सवारेगा. लेकिन मेरे नाइ की तरह शायद देश की अधिकाँश आबादी इस डील के बारे में उसी हैरानी के साथ देखती है जैसे गांव के लोग पिज्जा के बारे में सुनकर हैरानी से देखते हैं.

1 comment:

Udan Tashtari said...

बहुतेरे हैं जो तथ्य नहीं जानते थे बस तमाशा देख रहे थे.