चौपाल सजी थी, दिन २२ जुलाई २००८ का था। अब इस चौपाल का मतलब गाँव के चौपाल से बिल्कुल नहीं है। ये चौपाल भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चौपाल यानी लोकसभा थी। यानी कि भारत में लोकतंत्र को चलाने वाली संस्था। इस शब्दावली के कुछ मायने हैं अर्थात ऐसी संस्था जो यहाँ की जनता को सत्ता में भागीदारी दिलाती है। यहाँ मेरा मकसद लोकतंत्र की परिभाषा बताना नहीं है बल्कि मैं जिस घटना का आगे वर्णन करने जा रहा हूँ उसका ताल्लुक इससे है। हां तो मैं बात कर रहा था चौपाल की। सबकी निगाहें चौपाल में हो रही बहस पर टिकी थी। आख़िर होती भी क्यूँ न- बात ही कुछ इतनी गंभीर थी। सरकार और विपक्ष के लोग परमाणु ऊर्जा जैसे गंभीर मसले पर आपस में उलझे हुए थे। देश को आधुनिक बनाने के लिए परमाणु उर्जा की जरुरत बताते हुए सत्ता पक्ष वाले किसी भी सूरत में अमेरिका के साथ परमाणु करार करने को जायज ठहरा रहे थे। वही विपक्षी दलों के पास इसके विरोध के कई कारण थे। इसी के साथ सरकार के बचने और गिरने का २०-२० मैच भी शुरू हो चुका था। पूरा देश इस मामले को टकटकी लगाये देख रहा था। कोई टीवी पे चिपका था तो कोई रेडियो पे तो कोई इन लोगों के साथ ताजा ख़बर के लिए लगातार संपर्क बनाये हुए था।
तभी टीवी पर ३ माननीय कैमरे के सामने नमूदार हुए, उनके हाथों में नोटों के बंडल लहरा रहे थे। ये तीनो विपक्षी दलों के सांसद थे। इनका आरोप था कि ये एक करोड़ रुपया उन्हें सत्ता पक्ष की ओर से वोट का बहिष्कार करने के लिए दिए गए थे। ये पहला मौका था जब संसद के अन्दर इस तरह से नोटों के बंडल लहराए गए थे। पूरे देश में सनसनी फ़ैल गई। इस घटना की आड़ लेकर विपक्ष ने वोट टालने कि मांग की और स्पीकर से जांच करवाने की मांग की। मांग ठुकरा दी गई, शाम हुई, मतदान हुई और सरकार भी बच गई। सरकारी खेमे में जश्न का माहौल बना और बम-पटाके फोडे जाने लगे। टीवी चैनलों पर ये ख़बर सबसे सनसनीखेज ख़बर बन गई। तमाम नेताओं के बयां आने लगे, जनता जनार्दन की बाईट्स आने लगीं। एक चीज सब जगह देखने को मिली, परेशां सब थे लेकिन हैरान कोई न था। सबके सब ये मान के चल रहे थे- ये कौन सी नई ख़बर है। ये तो कई दिनों से टीवी चैनलों में चल रहा था की सौदेबाजी चल रही है। न तो इससे हमारे देश की जनता को hairaani हो रही थी और न इसमे शामिल लोगों को शर्म आ रही थी।। लोकतंत्र के मुंह पर कालिख पोतकर सब खुश थे। पुरी दुनिया को हमने दिखा दिया था की हम ऐसे ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र नहीं कहे जाते।
सरकार के बचने की खुशी लिए मैं घर से बाहर निकला और ऐसे मौके पर अमूमन चाय की दूकान
या फ़िर नाई की दूकान मेरा अड्डा हुआ करता है. जैसे ही मैं नाई की दूकान पर पहुँचा. नाई दोहरी खुशी के साथ मेरी ओर बढ़ा. मेरी खबरों के प्रति रूचि को जानते हुए उसे जल्दी थी की ये ख़बर मुझे जल्दी से जल्दी सुना दे. हड़बड़ी में वो बोला भइया सरकार तो फ़िर से आ गई. आपने देखा संसद में पैसे लहरायें जा रहे थे. किसी भी तरह सरकार बच गई. मैंने कारण जाने का प्रयास किया और कहा की अब चलो एटमी डील हो जाएगा. वो मेरी ओर ऐसे देखने लगा जैसे किसी नए जानवर का नाम मैंने ले लिया हो. यही वो शब्द था जिसके लिए कहा जा रहा था की डील देश का भविष्य सवारेगा. लेकिन मेरे नाइ की तरह शायद देश की अधिकाँश आबादी इस डील के बारे में उसी हैरानी के साथ देखती है जैसे गांव के लोग पिज्जा के बारे में सुनकर हैरानी से देखते हैं.