Friday 1 February 2008

बीस हजार की बाईक और एक लाख की कार!

२००८ का साल भारतीय खरीददारों के लिए बहुत ही शुभ दिख रहा है। कम से कम पहले महीने का हाल तो कुछ ऐसा ही दिख रहा है। अब देखिए साल के शुरू में टाटा ने अपना लखटकिया कार दिखा कर लोगों को काफी ललचाया और अभी जनवरी का महीना ख़त्म भी नहीं हुआ था कि ग्लोबल ऑटोमोबाइल्स ने १०० सीसी की बाईक मात्र बीस हजार में उतार कर आम भारतीय खरीदारों के सामने एक और चारा हाजिर कर दिया। विशेषकर भारत के माध्यम आय वाले लोगों के लिए ये दोनो उत्पाद काफी मायने रखते हैं। जैसे बजाज ने दो पहिया वहाँ उतर कर उदार होने का प्रयास कर बाज़ार को कई लाख नए खरीदार दे दिए थे उसी तरह ये दोनो उत्पाद लाख नहीं बल्कि करोडों में बाज़ार को खरीदार दे सकते हैं। हालांकि जितने नए खरीदार बनेंगे उसने कई गुना ज्यादा भारतीयों के लिए ये एक लाख की कार और २०,००० की बाईक अब भी एक स्वप्न के समान रहेगा।

इन दोनों उत्पादों की एक खासियत ये होगी कि शहर के साथ-साथ गाँव भी इन उत्पादों पर टूट पड़ेंगे। जहाँ तक मैंने गांवों को देखा है तो मुझे लगता है की गाँव की एक बड़ी आबादी इन दोनों उत्पादों को खरीदने में सक्षम है। मेरे कहने का ये कतई मतलब नहीं लगाया जाये की भारत के गांवों में रहने वाला हर इंसान अब बाईक या कार पर चलने लायक हो गया है लेकिन हां एक बड़ी आबादी ऐसी है जो २०,००० की बाईक और एक लाख की कार खरीद भी सकती है और उसपर चल भी सकती है। इसका कारण है भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद बढ़ी आर्थिक प्रतिस्पर्धा। जिसने भारत के किसान से लेकर बड़े से बड़े व्यवसायी तक को अपने उत्पाद पर ज्यादा से ज्यादा फायदा कमाने का मौका दिया। आप कल्पना नहीं कर सकते की आज के वक्त में बिहार जैसे परम्परागत खेती के मशहूर राज्य का एक किसान अब नकदी फसल की ओर ज्यादा जोर देने लगा है। क्योंकि वो जानता है की धान और गेंहू जैसे फसल बोकर वो बमुश्किल अपना खर्च निकाल पाएगा फायदे की बात तो दूर रही। मेरा मानना है की देश में आई सूचना क्रांति को इसका श्री देना चाहिए। बिहार और उडीसा जैसे पिछडे प्रांतों के लोगों तक ये सूचना अब आसानी से पहुंच रही है की कैसे गुजरात और पंजाब के किसान नकदी फसल बेचकर अमीर होते जा रहे हैं।

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