Saturday, 15 October 2011

आम आदमी की गौरव गाथा! (व्यंग्य)

((आपने सिंदबाद और गुलीवर की रोमांचकारी जीवनशैली और साहसिक यात्राओं की कहानियां अनेको बार पढ़ा होगा लेकिन आज आपके सामने प्रस्तुत है हमारे देश में हमेशा चर्चा के केंद्र में रहने वाले आम आदमी की एडवेंचरस जिंदगी की कहानी।))

मैं आम आदमी हूं। चेहरा 120 करोड़ में से..अरे नहीं..नहीं बीपीएल के 40 करोड़ चेहरों में से कोई भी एक चेहरा समझ लीजिए। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और कभी सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत भूमि में जन्मा आम आदमी। जिसकी गौरव गाथा आपको किसी भी बहस मुबाहिसे, राजनीतिक रैली, भाषणबाजी या टीवी पर हो रही चर्चाओं में अक्सर गुंजती हुई सुनाई पड़ सकती है। कई बार तो मुझे लेकर एसी सेमिनार हॉलों में चर्चा गर्मा भी जाती है। वैसे अगर लाइमलाइट(रील लाइफ) से निकलकर देखें तो मेरी रीयल लाइफ की कहानी भी काफी एडवेंचरस मिलेगी। जो जन्म से शुरू होकर अंतिम संस्कार या कई बार उसके बाद तक खींच जाती है, अगर उसपर राजनीति शुरू हो जाये या फिर टीवी चैनलों की पीपली लाइव टाइप कुछ मेहरबानी हो जाये।

हां, तो हम बात कर रहे थे अपने जन्म की।
तो हमारे जन्म की संभावनाएं दशकों से देश में चल रही तमाम परिवार नियोजनों की योजनाओं और तमाम आकलनों से कहीं ऊपर होती हैं। प्रसव की कहानी भी कम रोमांचकारी नहीं होती। गांव-घर की दाईयों की मदद से धरती पर अगर पांव रख दिया तो ठीक वरना सरकारी अस्पतालों की ओर गर्भ में रहते ही मेरी दौड़ शुरू हो जाती है। अस्पताल में दाखिल होने का नंबर मिला तो ठीक वरना अस्पताल के बाहर सड़क पर ही मैं अपना अवतरण पूरा कर लेता हूं। वैसे कई बार अस्पताल तक पहुंचने की नौबत भी नहीं आती और प्रसव प्रक्रिया को लाखों-करोड़ों की लागत वाली सड़कों में देवदूतों की तरह उभर आये गढ्ढे ही कई बार पूरा कर देते हैं।

चलिए ये तो रही मेरे पैदा होने के एडवेंचर की कहानी, अब थोड़ी शिक्षा-दीक्षा से जुड़ी हुई बातें भी कर ली जाये जिसका मुझे इस देश में अनिवार्य और मुफ्त प्राप्ति का अधिकार प्रदान किया गया है। हां, तो अगर मैं स्कूल जाने में सफल रहा तो वहां दोपहर के पहले का समय खिचड़ी के इंतजार में और उसके बाद का समय छुट्टी के वक्त में कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। और अगर स्कूल नहीं जा सका तो किसी साहब के घर में घरेलू कामकाज या फिर किसी साइकिल पैंचर की दुकान पर या रेस्टूरेंट वगैरह में काम पाकर अल्पआयु में ही रोजगार हासिल करने वाले देश के कुछेक खुशकिस्मत बच्चों में शामिल होने का गौरव प्राप्त करता हूं। तब हर साल बाल मजदूर दिवस के अवसर पर अखबारों में छपे हमारे फोटो व उसके ईर्द-गीर्द छपे बड़े-बड़े नेताओं की तस्वीरों व हमारे कल्याण के नारों से हमें फिर साल भर जी-तोड़ मेहनत करने की ऊर्जा मिल जाती है।

खैर जवानी की दहलीज पर कदम रखते वक्त हम भी मन में कई सपने सजाते हैं जैसे सिने स्टार्स की तरह लकदक जिंदगी हो, धूंए के छल्ले उड़ाते हीरोज की तरह स्टाइल हो या फिर बाहों में हीरोइनों को देखने की तमन्ना आदि।

हालांकि, जवानी के दिनों में हमे रोजगार के लिए देश ने काफी अच्छी लोकतांत्रिक व्यवस्था दे रखी है। अगर पढ़ लिया तो घर की खेती-बाड़ी या मां-बाप की बची-खुची पूंजी लेकर कोई नौकरी दिलाने वाले बहुत सारे समाजसेवी मिल जाते हैं और अगर पढ़ लिख नहीं सके तो सरकार साल में सौ दिन के रोजगार की गारंटी तो देती ही है। इसी बहाने सड़क, पूल, तालाब आदि बनवाने के काम में जुटकर थोड़ी-बहुत देश की सेवा भी हो जाएगी। हां ये अलग बात है कि 100 दिन का काम पाने के लिए भी कई लोगों को चाय-पानी का प्रबंध तो करना ही पड़ता है लेकिन कहते हैं न कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। सो हम तो भई संतुष्ट हैं। वैसे भी हमारी संस्कृति का संदेश भी यही है- संतोषः परम् सुखम्।

इधर एक संतोष की खबर और आई है हमारी जमात के लिए। कल सुना था रेडियों में कि सरकार ने फिर कहा है कि आम आदमी की तरक्की के लिए हम प्रतिबद्ध हैं। सुना है भूख हड़ताल वाले बुजुर्ग समाज सेवी भी हमे ही भ्रष्टाचार के चंगुल से निकालने के लिए अनशन पर बैठते हैं और जल्द ही इसपर कोई कानून भी बनने वाला है।

वैसे साल में 365 दिन होते हैं। 100 दिन की समाजसेवा से मुक्ति पाकर शेष दिनों में हमारे करने लायक बहुत कुछ होता है इस देश में। चुनावों के मौसम में राजनीतिक रैलियों में जनसमर्थन बनकर मैं ही अपार भीड़ के रूप में दिखता हूं। मैं न होऊं तो भला नेताजी लोगों का भाषण सुनेगा कौन... और कौन उनकी रैलियों को ऐतिहासिक व सफल बनाएगा। कौन उनके बैनर पोस्टर और झंडे ढोएगा। मैं ही सभी राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में आश्वासनों और वादों का लक्ष्य होता हूं और मुझे ही लुभाने के लिए लोकलुभावन नारे भी दिये जाते हैं। अपने पसंदीदा उम्मीदवार को चुनाव जीताने के लिए हम ही लंबी लाइनों में लगते हैं और फिर जीतकर जाने के बाद जब वे पांच साल तक वापस लौट कर नहीं आते तो हम कोई शिकायत भी नहीं करते। सही मायनों में देश में लोकतंत्र के असल पहरूए हम ही हैं।

मैं आम आदमी हूं। मैं ही रोजाना सुबह टीवी पर आने वाले बाबा लोगों के प्रवचनों के दौरान भक्तों के अपार जनसमूह के रूप में अपनी समस्याएं सुना रहा होता हूं और उनके चमत्कारी समाधान के लिए बाबा लोगों के गुणगाण भी मैं हीं गाता हूं। अब सोचो अगर मैं ना रहूं तो कैसे रहेगा इस तरह के विज्ञानों और ऐसे विद्वानों का मान।

मेरे ही कल्याण के लिए दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठानों में पिछले 64 साल से तमाम योजनाएं बनती आ रही हैं और विदेशों से पढ़-लिखकर स्वदेश आयातित योजनाकार मेरे कल्याण के लिए ही इतने सालों से योजनाएं बना रहे हैं। उनका मान रहे इसके लिए उनके द्वारा तय किये 32 रुप्ये, 26 रुप्ये व 20 रुप्ये जैसी छोटी राशियों में भी हंसी-खुशी अपना जीवन हमी जीते हैं। ये अलग बात है कि इन योजनाओं के बदले वे लाखों-करोडो़ कमा ले जाते हैं।

यही है हमारी यानि इस महान भारत भूमि के आम आदमी की गौरव गाथा। तो कृप्या हर टीवी शो, राजनीतिक रैली व बहस-मुबाहिसों में हमारी लोकप्रियता से जलने वालों अब तो समझों हमारे त्याग को जिस कारण हम आज भी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के केंद्र बिंदू बने हुए हैं।
भई... हम तो इस गौरव से खुश है और बस यही कहना चाहेंगे..
"अगले जनम मोहे आम आदमी ही कीजो..."