Tuesday, 27 May 2008

इस चुनाववादी समय में...

बाजारवाद की तरह
एक और वाद
इन दिनों फैशन में है
वो है
चुनाववाद...
और इसकी कई संतानों में से
एक है
आरक्षण...
इन चार अक्षरों का महत्त्व
बहुत बढ़ गया है
आज के चुनाववादी युग में...!

लेकिन कोई नहीं बोल सकता
कुछ भी
इस वाद के ख़िलाफ़
क्योंकि...
आरक्षण पर कुछ भी कहने के लिए
चाहिए कुछ ख़ास कानूनों से लड़ने की कुव्वत
और साथ ही
सुनने की हिम्मत भी
सदियों के इतिहास को
और उस इतिहास की यातनाओं को भी...!

Sunday, 25 May 2008

कुछ सपनों के मर जाने से.जीवन नहीं मरा करता...

कवि नीरज ने कहा था -
’छिप छिप अश्रु बहाने वालों
मोती व्यर्थ लूटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है।"

आज सुबह अखबार पढ़ते-पढ़ते ये पंक्तियाँ याद आ गई। टीवी और अखबार में इधर कई दिनों से देश के दो बड़े शहरों में हुई दो घटनाएँ छाई हुई है। पहली है राजधानी दिल्ली से सटे नॉएडा शहर की- आरुषी हत्याकांड, और दूसरी भी देश के एक मेट्रो शहर की है, मुम्बई का मशहूर नीरज ग्रोवर हत्याकांड। आधुनिक होते भारतीय समाज में इन दोनों घटनाओं ने सामाजिक मूल्यों को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। तमाम मंचों पर ये चर्चा शुरू हो गई है कि कहीं भारतीय समाज आधुनिक बनने के फेर में अपना आधार तो नहीं खोता जा रहा है। इसमें सबसे ज्यादा निशाना टीवी द्वारा भारतीय घरो में फैली जा रही संस्कृति को बनाया जा रहा है। इसी के साथ आज के अखबार में एक सर्वे भी छपा था- भारतीय शहरों में हो रहे ज्यादातर अपराधों का कारण प्रेम और सेक्स है। गाँव में अपराध के पीछे कारण अलग हैं लेकिन शहर के अपराध ज्यादातर आधुनिकता से पैदा हुए हैं। जाहीर है जब समस्या इतनी गंभीर रूप लेती जा रही है तो आधुनिकता की ओर देखकर आगे बढ़ रहे भारतीय समाज में इन बातों पर बहस होगी ही।

नॉएडा और बेंगलोर में हुए अपराधों की प्रकृति भी कुछ अलग है। नॉएडा के अरुशी हत्याकांड में जैसा की पुलिस बता रही है मामला परिवार व्यवस्था के टूटने का है। मामला अवैध प्रेम संबंधों के आगे परिवार की स्थिरता और प्रेम के हथियार डालने का है। जाहीर है ये पिछले कुछ सालो से चर्चा में रहे उन्मुक्त जीवन और प्रेम की उन्मुक्तता जैसे सवालों से उपजी हुई सामाजिक विकृति है जो वैवाहिक रिश्तों में विस्वास को स्पेस नहीं देती और फ़िर अपनी गलतियों को छुपाने के लिए किसी रिश्ते की पहचान नहीं करता और इसी उधेर्बुन में पूरे परिवार की तबाही का कारण बनता है। दूसरा मामला मुम्बई का नीरज ग्रोवर हत्या काण्ड है जो अतिआधुनिक उच्च वर्ग से सम्बन्ध रखता है। इसमें एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को किसी और के साथ रंगे हाथों पकड़ता है और फ़िर लड़ाई में एक की हत्या हो जाती है। लाश को छुपाने के लिए फ़िर प्रेमी-प्रेमिका मिलकर उसे टुकड़े-टुकड़े करते हैं और फ़िर बाद में पकड़े जाते हैं। दोनों अभियुक्तों अपने जीवन में सफल लोग हैं लेकिन निजी जीवन में उनकी असफलता उनकी सारी सफलता को बेकार कर देती है। ये दोनों किसी फिल्मी कहानी का हिस्सा नहीं है बल्कि हमारे आज के समाज में हुई दो घटनाएं हैं जो टीवी की संस्कृति से उपजी है और आगे आने वाली सामाजिक समस्यायों की ओर इशारा करती है। लेकिन सवाल यहाँ यही है हमें ही इन समस्यायों से उबरने का रास्ता भी दुन्धना पडेगा। कैसे इन चीजों से उबरकर समाज में, परिवार व्यवस्था में बिश्वास बनाये रखा जा सकता है। फ़िर कवि नीरज के इन्हीं पंक्तियों से ख़त्म करते हैं अपनी बात-
याद रख जो आँधियों के सामने भी मुस्कुराते,
वे समय के पंथ पर पदचिह्न अपने छोड़ जाते ...!

Sunday, 18 May 2008

आतंकवाद पर रक्षात्मक हो चुके हैं हम?

अपनी शांत जीवनशैली के लिए मशहूर जयपुर शहर में १३ मई को ७ ब्लास्ट हुए, ८० के आसपास लोग मारे गए और दर्जनों लोग घायल हुए। मरने वालों में हिंदू-मुस्लिम, पुरूष-महिला, बच्चे-बड़े सब थे। हर आतंकी हमले के
बाद जैसा की होता है वैसा ही हुआ। सभी बड़े नेताओं ने निंदा की, खेद जताया, घायलों और घटना स्थल को देखने के लिए बड़े-बड़े नेताओं के दौरे हुए, खुफिया विभाग ने कहा की हमने पहले ही सूचना दे दी थी, विपक्ष ने कहा की खुफिया विभाग की असफलता सरकार की असफलता है और ऐसे ही हमले के लिए सबने एक-दुसरे पर लापरवाही का आरोप मढ़कर अपनी साख बचने की व्यवस्था कर ली। तमाम राजनितिक बयानबाजी के बिच उन लोगों की आवाज दब सी गई, जिन्होंने बिना किसी कारण के अपने लोगों को खो दिया। उनका इन तमाम दों-पेंच से कोई वास्ता भी नहीं था। वैसे भी हमारे देश में अब इतने आतंकी हमले होने लगे हैं कि लोगों पर उसका असर बस कुछ ही देर के लिए होता है। जिस शहर में जब हमला होता है, baaki shaharon के लोगों के लिए वो महज कुछ देर के लिए afsos का विषय होता है। लोग ये जानते हैं कि उनकी सुरखा या तो आतंकवादियों के हाथ में है या फ़िर भगवान् के। अगर आतंकी मरने के लिए उन्हें नहीं चुनते हैं तो वो बच गए या तो फ़िर भगवान् कि कृपा से ही कोई बच सकता है। सरकार कि ओर से टैब तक कुछ हो पाना सम्भव नहीं है जब तक कुछ हो न जाए। और अगर हो भी जाए तो सरकार आंसू बहने के अलावा कर ही क्या सकती है...

जयपुर में हुए हमले के वक्त प्रधानमंत्री जी विदेश दौरे पर थे और उन्होंने भी चिंता जताते हुए कह डाला कि आतंकवाद पर सभी दलों को साथ-साथ आना पड़ेगा, प्रधानमंत्रीजी ने यहाँ तक कह डाला कि देश में ऍफ़ बी आई की तरह एक संघीय जांच एजेन्सी की जरूरत है। यहीं से असल तमाशा शुरू हुआ। सरकार में शामिल वामपंथी दलों ने संविधान का वास्ता देकर संघीय एजेन्सी के आईडिया पर हमला बोला तो विपक्षी बीजेपी ने फ़िर पोटा लागू करने की मांग कर डाली। बीजेपी का कहना था कि केवल संघीय जांच एजेन्सी बनाने से कुछ नहीं होने वाला बल्कि पोटा जैसा कडा क़ानून ही आतंकवाद पर लगाम लगा सकता है। बीजेपी का साफ कहना था कि बिना सख्ती के एजेन्सी का क्या काम। आडवाणी जी कर्णाटक में चुनाव प्रचार के लिए गए थे, वहाँ उन्होंने आतंकी हमलों के लिए केन्द्र सरकार को निशाना बनाया। अडवानी जी ने आंकडे भी गिनाये और कहा-- जब से ये सरकार सत्ता में आई है केवल एक वर्ग को खुश रखने के लिए आतंकवाद पर लचीला रुख अपना रही है। ४ सालों में इतने हमले हुए। सरकार एक भी आरोपी को पकड़कर आरोपपत्र दाखिल नहीं कर सकी। उल्टे इस सरकार ने पोटा को ख़त्म कर दिया और बीजेपी शासित राज्यों के बनाये सख्त कानून को भी पास नहीं होने दे रही है...

इन तमाम राजनितिक बयानों के बीच उस आम जनता के पास कोई ऐसा उपाय नहीं है जो उसे इन आतंकी हमलों से बचा सके। ये शायद उसकी नियति बन गई है कि हर हमले तक इस बात का इंतज़ार करना कि कौन इस बार हमले का शिकार बनेगा। अपने नंबर का इंतज़ार करना और फ़िर जख्मी होकर भाषण सुनना यही हमारी नियति बन चुकी है। हम आतंकवाद पर, अपनी रक्षा के लिए भी आक्रामक रुख नहीं अपना सकते और बस इंतज़ार कर सकते हैं अपनी बारी आने का॥

Saturday, 3 May 2008

सबके हाथ में दे दो एक-एक हथियार!

पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर की सरकार ने उग्रवाद प्रभावित इलाकों के लोगों को हथियार देने का फैसला किया है। चुने हुए ग्रामीणों को सरकार की ओर से हथियार मिलेगा। ये लोग अपने ही गाँव में तैनात किए जायेंगे बदले में इन्हें सरकार की ओर से मानदेय मिलेगा। मणिपुर में पुलिस इन ग्रामवासियों को प्रशिक्षण देगी और उन्हें विशेष पुलिस अधिकारी [एसपीओ] कहा जाएगा। प्रशिक्षण के समापन के बाद इन विशेष पुलिस अधिकारियों को तीन हजार रुपये प्रति माह दिए जाएंगे। हथियारबंद ग्रामवासियों को अगले माह से उनके संबंधित गांवों में तैनात किया जाएगा। सूत्रों ने बताया कि नक्सलियों के प्रकोप से निबटने की इस योजना के तहत बैरकों का भी निर्माण किया जाएगा। राज्य की कांग्रेस सरकार ने यह फैसला गांव वासियों की मांग के आधार पर किया है। गांववासियों ने सरकार से हथियार देने की मांग की है, ताकि वे खुद को नक्सलियों के हमलों और डराने-धमकाने से सुरक्षित कर सकें।

ऐसा नहीं है कि ये प्रयोग पहली बार किया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर के बाद छत्तीसगढ़ में ये प्रयोग सलवा जुडूम के नाम पर चल रहा है। जम्मू कश्मीर में तो विशेष पुलिस बल के रूप में काम कर रहे लोग और उनके परिवार हमेशा से आतंकवादियों के निशाने पर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में सरकार ने इनके परिवारों को हमले से बचाने के लिए राहत शिविर बनाये हैं और लोगों को वहाँ शरण दी जा रही है। हालांकि सलवा जुड़ूम को लेकर तमाम सवाल उठाये जा रहे हैं यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी छत्तीसगढ़ सरकार के इस फैसले पर सवाल खड़े किए हैं कि आम नागरिकों को सुरक्षा के नाम पर हथियार नहीं दिए जा सकते। सुरक्षा के लिए सरकार को सेना और अर्द्धसैनिक बलों की सेवा लेनी चाहिए न कि इसका उपाय लोगों को हथियार बांटना है।

लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस तरह के कदम उठाने से हम लोगों को सुरक्षित रख पाएंगे। क्या लोग अमन-चैन से रह पाएंगे। या इसका कोई स्थायी समाधान निकलना पड़ेगा। क्या इस तरह के काम से हम अराजकता को बढावा नहीं दे रहे है। समाज में अगर कुछ लोग हथियार उठाकर हिंसा शुरू कर दे और जवाब में अन्य लोगों को भी हथियार दे दिया जाए तो इससे हिंसा बढेगी ही। उसपर काबू पाने का सवाल ही कहाँ उठता है... सवाल ये भी है कि क्या सभी को हथियार दे देने से समाज में हिंसा नहीं होगी॥ अगर आम लोग ख़ुद हथियार उठाकर अपनी सुरक्षा करने लगेंगे तो फ़िर सरकार, सेना, पुलिस, व्यवस्था का क्या काम। फ़िर देश में राजनितिक व्यवस्था पर इतना खर्च क्यों हो। और अगर व्यवस्था हो भी तो चुनावों में नारा होगा...
""सबके हाथ में हो हथियार.....यही है हमारे संघर्ष का आधार....""

हमारी खुराक पर नज़र गराए है अमेरिका...

पड़ोसी तरक्की कर रहा हो तो जलन होना स्वाभाविक है, पड़ोसी के घर बन रहे अच्छे खाने से जलन व्यक्तिगत स्तर पर या फ़िर परिवार के स्तर तक तो सही है। लेकिन देशों के स्तर पर ऐसा कम ही देखने को मिलता है. अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा रईस का हाल में आया इसी तरह का एक बयान आजकल चर्चा में है. उन्होंने दुनिया में खाद्दान संकट के लिए भारत व चीन को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था की इन दोनों देशों में रह रही बड़ी आबादी ने अब अच्छे भोजन पर ध्यान देना शुरू कर दिया है और इनके लिए वहाँ की सरकारों ने पहले की अपेक्षा ज्यादा अनाज बचाना शुरू कर दिया है इसी लिए अन्य देशों को अनाज की कमी हो गई है और दुनिया खाद्दान संकट से गुजर रही है। पूरी दुनिया में खासकर गरीब देशों में लोग महाशक्ति अमेरिका के विदेश मंत्री के इस बयान को बड़ी ही अचरज भरी निगाहों से देख रहे हैं। तेजी से बदल रही दुनिया में आज इस बयान को गरीब देशों के अपमान के रूप में देखा जा रहा है। जाहीर है अमेरिका का ये बयान गरीब देशों के लोगों द्वारा खान-पान पर बढे खर्च को देखकर आया है. यहाँ हो रहे अच्छे अनाज और फल सब्जियों को बढ़ती महंगी के कारण जब बाहर जाने से रोका गया तो इन देशों में बौखलाहट बढ़ने लगी. इन्हें आज भी लगता है की ये देश अब भी अपने मंहगे उत्पाद इनके यहाँ बेच दिया करें और केवल वही चीजे अपने पास रखे जिन्हें ये पसंद नहीं करते हों.

गरीब देश जिनके लिए भारत और चीन हमेशा से विश्व मंच पर अगुवा के रूप में सामने आते रहे हैं उनपर की गई ये टिपण्णी पूरी गरीबी पर की गई अपमानजनक टिप्पणी के रूप में ली जा रही है। क्या इन देशों को अब भी ये पश्चिमी देश भूख, भिखारी और भिक्षुओं के देश के रूप में देखना चाहते हैं। जाहीर है है ये बयान भी अमेरिका की किसी योजना के सन्दर्भ में आया होगा। क्या अमीर देश अब इस समस्या के प्रति कोई रणनीति बनाकर वहाँ के लोगों को अच्छा खाना खाने से रोकने में लगेंगे। ऐसी हालत में अफ्रीका, मध्य-पूर्व समेत दुनिया के तमाम इलाकों में गरीबों के उत्थान के लिए अमीर देशों द्वारा चलाया जा रहा कार्यक्रम लोगों का विश्वास जीत पाएंगे... क्या दक्षिण और उत्तर की दुनिया को पाटने के नाम पर, अमीरी-गरीबी की खाई पटने के नाम पर शुरू हुई वैश्विक भाईचारे का नारा पश्चिमी दुनिया ने बस एक दिखावे के रूप में शुरू किया था...

भारत और चीन जैसे जो देश आधुनिक अमेरिका के पीछे चलकर विकास की मंजिल तय करने लगे थे उनके लिए ये बयां आँखे खोलने वाला है। इसके अलावा ये उन देशो और समाजों के लिए भी आंखे खोलने वाला बयान है जो अमीर देशों के हाथों में ख़ुद को सौप कर विकास का रास्ता तय करना चाहते थे। वैसे भी अपनी सम्पनता के दंभ में अमेरिका ने कई देशों के भविष्य को अपने कब्जे में ले लिया है। मध्य-पूर्व पहले से ही पश्चिमी देशों के चंगुल मैं है. पिछले दशक में आतंकवाद के नाम पर अफगानिस्तान फ़िर इराक पर कब्जा कर वहाँ के राजनितिक शक्ति को भी अमेरिका ने अपने शिकंजे में कर लिया है. इसी तरह मदद के नाम पर पाकिस्तान भी अमेरिका के शिकंजे में फंस चुका है. जो देश अमेरीका का शिकार होने से बच गए उनमें वियतनाम, उत्तर कोरिया, क्यूबा, वेनेजुएला जैसे देश हैं जो अब तक अपनी अस्मिता को इन दम्भी देशों से बचाए हुए हैं. इसी तरह जब इरान अपने सम्मान के लिए अमेरीका के सामने खरा हुआ और अमेरीका उसे तमाम कोशिश करके भी नहीं दबा सका तो गरीब देशों को दी जा रही अपनी मदद की ओट लेकर अपना निशाना साधना चाह. इरानी राष्ट्रपति की भारत यात्रा से पहले अमेरीका ने भारत पर ही दबाव बनने का प्रयास किया की वो इरान पर दबाव डाले. भारत की सरकार ने जिस तरह अमेरिकी घुरकी का जवाब दिया वो काबिले-तारीफ़ है. इसी तरह सभी गरीब देशों को विकास के लिए इस अमीर देशों के साथ आने के बावजूद अपने सम्मान के मसले पर खुलकर बोलना होगा. तभी सदियों से चली आ रही शोषण की इस परम्परा को ख़त्म किया जा सकेगा. और पड़ोसी हमारे अच्छे खाने को देखकर जलना बंद करेंगे...