Sunday 9 January 2011

प्याज के साइड इफेक्ट..!

तारीख १ जनवरी २०५०...की सुबह। देश नया साल मनाने को तैयार है।
स्थान- संसद भवन परिसर।
पत्रकारों की भारी भीड़ श्री-श्री बाबा प्याजेश्वर की एक झलक को कैमरे में कैद करने की धींगामुश्ति में जुटी हुई है, बाहर देशभर से आई जनता भी बाबा की एक झलक पाने के लिए आतुर है। भारत सरकार के लंबे समय से जारी अनुरोध को मानते हुये पड़ोसी देश चीन से आये बाबा नव वर्ष के अवसर पर भारतीय संसद को संबोधित करने आए हैं। बाबा की लोकप्रियता की कहानी ४० साल पहले २०१० में भारत से ही शुरू हुई थी। तब भारतवर्ष प्याज संकट के दौर से गुजर रहा था। चारो तरफ हाहाकार मचा हुआ था। हुक्मरानों के तमाम प्रयासों के बावजूद देश को प्याज के संकट से नहीं निकाला जा सका। देश के विभिन्न हिस्सों में और यहां तक कि घरों के अंदर और छतों पर भी प्याज उगाने के तमाम प्रयास कभी किसानों का देश कहे जाने वाले महान भारतभूमि की कल्याणकारी सरकार और जनता द्वारा किये गये। आखिरकार ५ सालों के असफल प्रयास के बाद देश को प्याज के मामले में दिवालिया घोषित कर दिया गया।
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ऐसी स्थिति में दिल्ली के चांदनी चौक में प्याज के परांठे की दुकान पर काम करने वाले गोलू को तब अचानक एक आइडिया आया। गोलू ने अपने गुरू और दुकान के चीन निवासी मालिक चेन लिउ के कान में कुछ कहा। पड़ोसी देश चीन की सरकार देश का कारोबार बढ़ाने वाले सभी उपायों को ध्यान से सुनती थी यह बात चेन लिउ महोदय को मालूम थी। झट से अगले दिन वे गोलू महोदय के साथ चीनी दुतावास पहुंच गये और फिर जैसे उनकी तरक्की को पंख लग गये। चीन की सरकार की मदद से उन्होंने चांदनी चौक की अपनी दुकान को प्याज प्रसंस्करण केंद्र में बदल दिया और आइडिया देने वाले गोलू जी को अपना एडवाइजर बनाया। दोनों की जोड़ी एकदम अकबर-बीरबल स्टाइल में काम करने लगी। चीन के अपने पुस्तैनी जमीन पर इन्होंने कृत्रिम प्याज बनाने की एक फैक्टरी लगा ली और फिर भारत को उसका निर्यात करना शुरू कर दिया। देखते-देखते गोलू जी कब प्याज वाले बाबा के नाम से जाने जाने लगे किसी को भनक तक नहीं लगी। फिर प्याज प्रोसेसिंग, प्रिजर्विंग और एक्सपोर्ट जैसे अंग्रेजी टाइप नामों वाली कई कंपनियां चेन लिउ महोदय के नाम पर चलने लगी। इधर लिउ महोदय ने दुनिया छोड़ी ऊधर गोलू जी ने बाबा प्याजेश्वर का नाम धारण कर प्याज पर ग्लोबल कंसलटेंसी का काम शुरू कर दिया। कृत्रिम प्याज बनाने की तकनीक जानने वाले वे धरती पर अब अकेले जीव बच गये थे। बाबा की तरक्की देखकर पड़ोसी देश चीन ने उन्हें अपने देश की नागरिकता देकर बुला लिया। भारत और चीन दोनों देशों में प्याजेश्वर बाबा की समान इज्जत थी क्योंकि उन्होंने दुनिया से प्याज के अस्तित्व को खत्म होने से बचाकर इसे बहुमूल्य धरोहर के रूप में ही सही जिंदा तो रखा था।
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देश में प्याज की इतनी इज्जत बढ़ गई थी कि इसने डायमंड और गोल्ड की जगह ले ली। ऐसे वक्त में जब अपने घरों में प्याज को सजा कर रखना देश के कुछेक अमीरों को ही नसीब हो पाता था। जैसे लोग पहले अपने बच्चों के नाम सोनालाल, चांदीराम और हीरामल रखा करते थे वैसे ही अब लोग अपने बच्चों का नाम प्याज प्रसाद, प्याजीलाल और प्याज प्रताप सिंह रखने में गर्व महसूस करने लगे थे। बल्कि प्याज पर नामों की बहुतायत को देखते हुये सरकार ने इसमें सभी जातियों और धर्मों के लिए आरक्षण की घोषणा भी कर दी और ऐसा नाम रखने पर भारी-भरकम फीस लगाने का फैसला कर लिया। लेकिन इज्जत पाने की खातिर धन खर्चने की आदत हमारे देश में काफी पुरानी है। सो इसपर भी नाम रखने वालों की भीड़ कम नहीं हुई तो सरकार ने प्याज के ऊपर नाम रखने की राशनिंग पद्धति लागू कर दी। हां नेताओं तक अपनी पहुंच के कारण कुछ लोगों के लिए इसकी अनुमति पाना अब बी आसान था, भारत ने अभी भी जुगाड़ की अपनी पुरानी धरोहर को मिटने नहीं दिया था।
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हां, तो हम बात कर रहे थे प्याजेश्वर बाबा के संसद में संबोधन की। बाबा के आते हीं सभी सांसदगण बाबा के सत्कार के लिए उठ खड़े हुये। सत्कार लेकर बाबा जैसे ही बैठे सामने की पंक्ति में बैठे चार सदस्यों से उनका परिचय कराया गया। ये चारों जापान से उपहार में मिले रोबोट मानव थे। उपहार में इन्हें पाकर देश की जनता और हमारे हुक्मरान इतने आह्लादित हुये थे कि इन्हें संसद की सदस्यता से सम्मानित किया गया। तभी से ये सभी विशिष्टगण संसद में सामने की सीटों की शोभा बढ़ाते आ रहे थे। बाबा के साथ आये उनके अनुचरों(आधुनिक शब्द में कहें तो उनके एक्जेक्यूटिव्स) ने सभी सांसदगणों को प्याज से बना एक-एक चॉक्लेट उपहार में दिया। सबने बाबा का आभार व्यक्त किया। बाबा ने अपने भाषण में दुनिया के प्याज संकट पर प्रकाश डालते हुये इससे निपटने के लिए वैश्विक प्रयासों का आह्वान किया। उनके साथ आए चीन के कृषि मंत्री ने चीनी सरकार की ओर से हर साल भारत को १० किलो प्याज के निर्यात का भरोसा भी दिलाया। हमारे विशिष्ट गणों ने प्याज देने की अनुकंपा के लिए चीन को धन्यवाद दिया। धन्यवाद के इस सुर में पीछे बैठे विपक्षी सांसद जोखीलाल के विरोध की आवाज दब सी गई। प्याज से बने चॉकलेट पाकर उनके दल के साथियों ने उनका साथ देने से इंकार कर दिया और उन्होंने हाथ में रखा पर्चा भी संकोचवश अपने पास ही छुपा लिया जिसमें देश में प्याज की खेती को बर्बाद करने के लिए पड़ोसी देश पाकिस्तान और उसके खुफिया संगठन आईएसआई को जिम्मेदार ठहराया गया था और उन्हें मिल रही गुप्त चीनी मदद पर विरोध जताया गया था। संसद भवन में अपना कार्यक्रम खत्म कर प्याजेश्वर बाबा एक अन्य कार्यक्रम के लिए निकल पड़े जहां उन्हें प्याज रत्न पुरस्कार प्रदान करना था और भारत-चीन मित्रता को मजबूत करने के लिए प्याजमैत्री कारवां को हरी झंडी दिखाकर रवाना करना था। बाबा ने अपने इस कार्यक्रम में अपना संदेश देते हुये दुनिया में सबको प्याज मिले इसकी कामना की और फिर प्लेन पकड़ने निकल पड़े जहां से उन्हें प्राचीन शिकागो विश्वविद्यालय में प्याज के इतिहास पर व्याख्यान देने के लिए रवाना होना था।

Saturday 8 January 2011

अंधेर नगरी-चौपट राजा...!

आजादी के ६३ सालों बाद आज हमारा महान देश भारत अपने साहित्यकार भारतेंदू हरिश्चंद्र के इस उक्ति को सार्थक करने योग्य परिपक्वता हासिल कर चुका है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने बारे में हम चाहे जो भी कह लें लेकिन हमारी वास्तविकता क्या है हमे इसका पूरा आभास है। किसी भी देश के राजनीतिक नेतृत्व का काम होता है ऐसी चीजों को बढ़ावा देना जिससे देश और समाज अन्य समाजों की तुलना में टिकने योग्य बन सके और भविष्य की चुनौतियों का सामना करने लायक बन सके। लेकिन हमारे यहां आज हालात ऐसा बन गया है कि जिसे जिस पद पर बैठा दिया जाये वह वहीं से दोनो हाथों से राष्ट्र की संपत्ति के संचय में जुट जाता है। अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए तो हम कुछ करते नहीं उल्टे बुनियादी चीजों से हमारा ध्यान हटाये रखने के लिए हमारे हुक्मरान हमे सुपरपावर बनाने का वहम दिखाते रहते हैं। एक तरफ जहां हमारा पड़ोसी देश चीन रोज कामयाबी की नई कहानी लिख रहा है वहीं हम रक्षा, तकनीक, हथियारो और विमान आदि सभी चीजों के लिए आज भी दूसरे देशों पर ही निर्भर हैं और उसपर भी बेशर्मी इतनी कि हर साल राजपथ पर इन उधार की चीजों की प्रदर्शनी निकालकर गर्वान्वित होते रहते हैं। हम ५०-६० किलोमीटर की रफ्तार से चलने वाली मेट्रो ट्रेन जापान से लेकर इतने खुश हो रहे हैं जैसे कोई अद्भुत अविष्कार कर डाला हो, वहीं दूसरी ओर चीन जैसा पड़ोसी दुनिया की सबसे तेज रफ्तार ट्रेन खूद के बुते बनाकर नई मिसाल कायम करता जा रहा है। एक तरफ जहां हमारे अंतरिक्ष मिशन विफल हो रहे हैं वहीं चीन चांद पर जाने की तैयारियों को मुक्कमल बनाने में जुटा हुआ है।
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जिस देश की करीब दो-तिहाई आबादी गरीबी रेखा से चीने जीवन-यापन करती हो वहां हजारों करोड़ रुप्ये फूंककर खेल-तमाशे कराये जाते हैं और हमारे हुक्मरानों को इसपर शर्म भी नहीं आती। सबसे बड़ी गलती देश की जनता की है जो इतनी सारी विसंगतियों के बावजूद राजनीतिक बिरादरी को सबक सिखाने की बजाय उनके तमाशे पर मौन धारण किये हुए है। भ्रष्ट, घोटालेबाज, दागी और अपराधी तत्वों को अपने समाज की बागडोर सौंप कर हम न जाने किस खुशहाली की उम्मीद पाले हुये हैं।
आज हमारा समाज वास्तविक रूप से अंधेर नगरी-चौपट राजा की कहावत को चरितार्थ करने में सक्षम दिख रहा है।

Friday 7 January 2011

आने वाली पीढियों के लिए आज का इतिहास..!

फर्ज करिए २०५० की एक सर्द सुबह में जब भारत का कोई बच्चा स्कूल जायेगा और उसके हाथों में भारतीय इतिहास के कालखंड १९९०-२०१० के बीच के गौरवमय इतिहास की पुस्तक की विषय सामग्री कुछ इस तरह की होगी.
"शुरूआत करते हैं १९९० के दशक की शुरुआत से जब देश ने वैश्विकरण और उदारीकरण का दामन थामकर सुपरपावर बनने का सपना नया-नया ही संजोया था। अभी कुछ साल पहले ही देश ने खुद की सुरक्षा के लिए विदेश से बोफोर्स नाम का आधुनिक प्रक्षेपास्त्र मंगाया था लेकिन इस सौदे ने देश को घोटाला नामक एक नया शब्द दिया जो कि आने वाले कई दशकों तक देश और दुनिया में भारत का नाम रौशन करता रहा। जिस भारत के नाम पर इससे पहले केवल एक जीरो की खोज का क्रेडिट था उसे इस नए शब्द ने एक बार फिर दुनिया में सर ऊंचा उठाने का हौसला दे दिया। जिस भारत को कभी पश्चिमी दुनिया सपेरों का देश कहा करती थी उन फिरंगियों को भारत के महान घोटालेबाज विभुतियों ने घोटाला नामक इसी हथियार से कुछ ही सालों में नतमस्तक कर दिया। देश में वैश्विकरण लाने वाले उस दौर के हमारे हुक्मरानों ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को सुरक्षित रखने के लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में लोकतांत्रिक भावना को और मजबूत करते हुये सांसद रिश्वत कांड की नई इबारत लिख डाली। अनाज उत्पादन के लिए किसानों को मिलने वाले यूरिया में घोटाला जैसी महत्वपूर्ण परियोजना को कार्यान्वित करने का श्रेय भी इसी दौर के हुक्मरानों को जाता है। फिर तो क्या कहने देश में घोटालों के विकास को जैसे पंख लग गये। शुरूआती कारनामों के नक्शेकदम पर चलते हुये हमारे शूरवीरों ने शेयर घोटाला, संचार और न जाने कितने घोटालों की कहानी लिख डाली। मलाईदार और रसूखदार पदों पर बैठे लोगों के यहां से छापों में बोरो में भर-भरकर नोट और सोने-चांदी के चप्पल-जूते मिलने लगे। जिस भारत की जनता अपने देश के बारे में ये सच्चाई भुलने लगी थी कि कभी भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था उन्हें हमारे इन शूरवीरों ने फिर से एहसास दिलाया कि भारत गरीब नहीं बल्कि अभी भी सोने की चिड़िया ही है।
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देश के लाल इतने से ही रूकने वाले नहीं थे उन्होंने प्रगति की रफ्तार थमने नहीं दी। इसी दौर में देश ने सही मायनों में समाजवाद को अपनाया। समाजवाद के नाम पर सत्ता में नये-नये शामिल हुक्मरानों ने भी प्रगति में योगदान देना शुरू किया। किसी ने पशुओं का चारा डकार लिया तो किसी ने सड़क बनने के लिए काम आने वाला अलकतरा तक अपने गले में उतार कर दुनिया को आसन्न संकट से वैसे ही बचा लिया जैसे भागवान शिव ने समुद्र मंथन में निकले विष को अपने गले में उतारकर ब्रहांड की रक्षा की थी। आखिर पशु चारा खाकर करते ही क्या और अलकतरे से बनने वाली सड़क ही कौन सी अनश्वर साबित होने वाली थी. कुछ ही सालों में उनमें गढ्ढे बन जाते और जनता को उन्ही गढ्ढों से होकर रोजाना दफ्तर और स्कूल जाना पड़ता। खैर हमारे हुक्मरानों ने वक्त से पहले ही अपनी जनता का दुख हर लिया।
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१९९० के इस गौरवमयी दशक के समापन के बाद भारत में सुपर पावर बनने का सपना(तब के कुछ सिरफिरे इसे महज वहम कहा करते थे) भी प्रबल हो चला था। इसी मजबूत इरादे के साथ देश ने २1वीं सदी का इस्तकबाल किया। देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के हृदय कहे जाने वाले संसद भवन में नोटों की गड्डियां लहराई जाने लगी। इसी दौर में देश में प्रोफेशनलिज्म आया...और हमारे जनप्रतिनिधियों ने संसद में जनहित से जुडे सवाल पूछने के लिए भी फीस लेनी शुरू कर दी। युद्ध-भूमि में देश की रक्षा के लिए जान गंवाने वाले सैनिकों के लिए मंगाये गये ताबूत में से भी मुनाफा निकालकर तब के रसूखदार लोगों ने प्रगति की एक नई परिभाषा दुनिया को दी। ऐसे वक्त में जब शेष दुनिया अंतरिक्ष विज्ञान, चांद तक पहुंचने और विज्ञान-तकनीक के विकास जैसी छोटी-छोटी चीजों में उलझी हुई थी तब हमारे देश के शूरवीरों ने मनी-मंत्र नामक विचारधारा की खोज कर उसे आगे बढ़ाया। उस दौर के एक महान विचारक का कथन--- 'पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा से कम भी नहीं है' से उस दौर के उच्च विचारों का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसी दौर में स्पेक्ट्रम आवंटन जैसी अलौकिक और अदृश्य घटनाएं भी घटी। तरक्की की मिसाल तो देखिए कि जिन ध्वनि तरंगों को आम इंसान देख भी नहीं सकता उन्हें बेचकर हमारे हुक्मरानों(समझे नहीं... मतलब तब के किंग-क्विन) और नौकरशाहों(मतलब देवदूत टाइप) ने करोड़ों-करोड़ का मुनाफा बनाया। देश में परिवार संस्था तब इतनी मजबूत हुआ करती थी कि हुक्मरान शहीद जवानों के परिवारजनों के लिए बने आवासों को भी अपने सगे-संबंधियों को दे देते थे। परिवार को लेकर ऐसा लगाव शायद की तब किसी और देश में पाया जाता हो। तब देश में हजारों हजार करोड़ खर्च कर खेल-तमाशे हुआ करते थे और उसमें भी रईसी ऐसी कि पूरी दुनिया ने दांतों तले उंगली दबा लिया। तब देश इतना अमीर हुआ करता था कि विदेशों से आने वाले मेहमानों के लिए हर बंदोबस्त राजशी ठाट-बाट वाले हुआ करते थे। मेहमानों को देश का कोई गरीब नहीं दिख जाये इसके लिए पहले ही उन्हें सड़क किनारे से हटा लिया गया था और कूड़े-कबाड़े के ढेरों को सुंदर-सुंदर बैनरों से ढक कर देश को सुंदरता प्रदान की घई थी। ऐसी भव्यता थी कभी अपने देश की। देश की जनता अपने लालों के कारनामों की मुरीद बन गई और जगह-जगह मांग होने लगी कि घोटाला नामक इस आविष्कार को कानूनी रूप देकर पेटेंट करा लिया जाये, कहीं विदेशी लोग इसे हड़प कर हमारी बराबरी न करने लगें। आम-आदमी की भी तब काफी इज्जत थी। उनके खाने-पीने की चीजें जैसे प्याज, टमाटर और दाल जैसी चीजे रोजाना टीवी पर दिखाई जाती थी और तब के कृषि मंत्री देश के प्राचीन ज्ञान ज्योतिष विज्ञान में खूब भरोसा रखते थे। तब आम आदमी की समस्याओं के समाधान के लिए हुक्मरान ज्योतिष विज्ञान का खूब इस्तेमाल करते थे और जनता-जनार्दन सरकार के इस कल्याणकारी रवैये से काफी खुश थी। लोग जिंदगी से इतने निश्चिंत थे कि तब की राजनीतिक रैलियों में हजारों और लाखों की संख्या में लोग पहुंचते थे और राजनेताओं द्वारा दिये गये उपदेश को सुनकर अपना जीवन धन्य करते थे।
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२१वी सदी शुरू होते ही देश ने दूध की नदी बहने जैसी प्राचीन कहावतों से पीछा छुड़ाते हुये अभिजात्य वर्ग का टॉनिक कहे जाने वाली शराब की नदी बहाने का लक्ष्य प्राप्त कर लिया था। देश का हर हिस्सा इस मामले में समान गति से विकास कर रहा था। इस नए प्रकार का दूध पीकर लोग अपना दुख-दर्द भूल जाया करते थे।
नारी सश्क्तिकरण को भी तब हमने खूब बढ़ावा दिया था। मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी देश के लोगों को तब उत्साह से लबरेज रखने के लिए टॉनिक का काम किया करती थी। पूरा देश इन स्वरलहरियों पर झूम उठता था और जो खुश नहीं थे उन्हें राखी सावंत जैसी उस दौर की महान न्यायवादी महिलाओं के इंसाफ से उनका हक मिलता था। पूरे भारत भर में राम राज्य जैसा माहौल था। सही मायनों में उस दौर को देश के लिए गोल्डेन एज कहा जा सकता है।