Sunday 29 March 2009

किसी की जय हो तो किसी की भय हो...

चुनावी घमासान शुरू हो गया है ऐसे में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता. ऐसे में गानों की तरह राजनीति में भी रीमिक्स का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. पार्टियों की रीमिक्स, नारों की रीमिक्स और प्रचार के तरीको की रीमिक्स की धूम मची हुई है. देश के सत्ताधारी दल ने गरीबी पर बने और पूरी दुनिया में सराहे गए फिल्म स्लमडॉग मिलियनायर के मशहूर गाने --जय हो-- को अपनाया और कहा हमारा हाथ आम आदमी के साथ. उसके जवाब में विपक्षी पार्टी ने उसका विकृत रूप --भय हो-- उतारा. कुछ दिन पहले ऐसी ही जंग उत्तर प्रदेश के सत्ताधारी दल और विपक्ष के बीच हुई थी. एक ने धिक्कार रैली निकाली तो दूसरे ने थू-थू दिवस से ही काम चला लिया. एक तरफ तीसरा मोर्चा अस्तित्व में आया तो मशहूर हास्य अभिनेता जसपाल भट्टी ने इसका उपहास उडाने के लिए चौथे मोर्चे का भी कांसेप्ट सामने रख दिया. हालाँकि जल्द ही सच्ची में भी चौथा मोर्चा सामने आ गया. ऐसे न जाने कितने रीमिक्स अभी इस मौसम में लगातार देखने को मिलते रहेंगे...राजनीति के इस पाईरेसी के धंधे में कब कौन किसका शिकार बन जाये कहा नहीं जा सकता...रात में सोये मजे-मजे और सुबह उठने पर अपनी ही पाईरेटेड कॉपी से मुलाकात हो जाये...कुछ निश्चित नहीं है आज के दौर में...

Friday 27 March 2009

तस्लिमा के आने से कौन भड़क सकता है?

हमेशा मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी धड़े के निशाने पर रहने वाली बंगलादेशी लेखिका तस्लिमा नसरीन ३१ मई तक भारत नहीं आ सकती। ऐसा सरकार ने उन्हें वीजा जारी करने के लिए दिए शर्तों में लिखा है. जाहिर सी बात है कि ऐसा इसलिए किया गया है ताकि तस्लिमा को चुनाव तक देश से बाहर ही रखा जाये. इसका सीधा सा मतलब है कि इसके पीछे ये डर है कि कहीं तस्लिमा के आने से देश का मुस्लिम समुदाय भड़क न जाये. जाहिर है सभी दल चुनावी मौसम में अपना कोई भी दांव ख़राब नहीं होने देना चाहते.

अब हाल ही में हुए कुछ राजनीतिक गठजोड़ पर गौर फरमाए. देश के सत्ताधारी दल ने कल ही एक ऐसे दल के साथ चुनावी गठजोड़ किया जिसने पिछले साल जॉर्ज बुश के सर पर करोडों का इनाम घोषित किया था. देश के विपक्षी दल के नेता उस नौजवान के पक्ष में गोलबंदी के लिए लालायित दिख रहे है जिसे कल तक कोई राजनीति में गंभीरता से नहीं ले रहा था और आज एक संप्रदाय विशेष के खिलाफ भड़काऊं बयान देकर वो रातो-रात हीरो बन गया है. जबसे चुनाव का माहौल बना है अल्पसंख्यक जमात के नेताओं को(कई तो बस अल्पसंख्यक दिखने भर की योग्यता रखते हैं) सभी दलों के नेता प्रेस कांफेरेंस के दौरान अपने बगल में बैठाते हैं. राजनीति में शामिल ऐसे ही धाकड़ राजनीतिज्ञों और देश का भविष्य सुधारने(शायद!) के काम में जुड़े महान लोगों को चिंता है कि कहीं तस्लिमा जैसे बेबाक लोग आकर उनके रंग में भंग न डाल दे. वे इतनी मेहनत से, इतनी तिकरम से लोगों को अपने से जोड़ रहे हैं लेकिन अब कोई आकर उनका काम ख़राब कर दे तो अखरेगा ही...इसलिए समय रहते ही कदम उठा लिया गया.

कुछ शब्द मां के लिए...

भरी दुपहरी में, जलती रेत पे चलते-चलते
जब भी मेरे पांव जवाब देने को होते है,
उखड़ने को होती है मेरी साँसे
जब सो जाना चाहता हूँ मैं भी
वक्त के निर्मम छाँव में...

तभी मेरे जेहन में आ बसता है
उस मां का चेहरा
जिसकी उम्मीदों और अपेक्षाओं का
आखिरी सिरा जुड़ा है मुझसे...
घर से निकलते वक्त
उम्मीद और आकाँक्षाओं से भरी
मुझे निहारती मां की आँखे...
और बाहर से सकुशल लौट आने की
उसकी हिदायते भी...

शायद ऐसे ही
हर किसी की जिंदगी में होता है
स्थान--- मां का...
और शायद ऐसी ही होती है
उसकी छाया....।

Thursday 26 March 2009

जो पप्पू नहीं उन्हीं की देन है ये लोकतंत्र...

टीवी पर एक विज्ञापन इन दिनों लगातार देखने को मिल रहा है। जागो रे... इसकी लाईने हैं--अगर वोट नहीं कर रहे तो आप सो रहे हैं। ये अभियान पिछले साल राजधानी दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव के समय शुरू किये गए पप्पू अभियान से मिलता-जुलता है. लेकिन सिक्के का एक और पहलू है. आप किसी को पप्पू कह लें और अपने मन को तसल्ली कर लें आपकी मर्जी... लेकिन ये भी तो सोचिये कि लोग अपने मताधिकार का प्रयोग करने की अपेक्षा पप्पू कहलाना क्यूँ पसंद करते हैं. अच्छी बात है अच्छा उद्देश्य है इन विज्ञापनों का...लेकिन ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि बाल मजदूरी रोकने का विज्ञापन है. जिसमें इसे अपराध तो बताया जाता है लेकिन इसका कोई हल भी कोई बताता तो बेहतर होता.

हम-आप में से कई लोग अपने वोट का इस्तेमाल करते ही हैं... और शायद जम्मू-कश्मीर के लोग इस काम में सबसे हिम्मत का प्रदर्शन करते हैं वहां के जो लोग पप्पू कहलाना पसंद नहीं करते उन्हें बम-गोलों का भी सामना करना पड़ता है। शायद हमारे जैसे लोगों के कारण ही पिछले ५० सालों से भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी चल रही है. लेकिन कई अच्छाईयों के साथ-साथ हमारे लोकतंत्र का एक बदरंग चेहरा भी है. जो लोग खुद को पप्पू न कहला पाने के मुगालते में जी रहे है उन्ही के कारण संसद और विधानसभा दागी छवि वाले इंसानों, अपराधियों, हत्यारों और अन्य अवांछित लोगों का सबसे सुरक्षित अड्डा बना हुआ है. अगर इन्हें गैर-पप्पू लोगों ने नहीं चुना है तो किसने चुना है. कोई अपराधी किसी एक के वोट से सांसद-विधायक नहीं चुना जाता. बल्कि कई-एक लाख लोग मिलकर किसी माननीय को चुनते हैं और अगर ऐसे लोग चुने जाते है तो हमारे समाज और उसके सभ्य होने के हमारे मुगालते पर एक करारा तमाचा है.

मैं बिहार प्रान्त से आता हूँ। जब मैं वोट देने का अधिकार नहीं रखता था तब से देख रहा हूँ अपने यहाँ की लोकतांत्रिक व्यवस्था को. मैंने बूथ कैप्चरिंग का दौर भी देखा है. तब वोट मत-पत्रों से डलते थे. उस दौर में मेरे गाँव में चुनाव के दिन शाम को जो भी मिलता अपनी बहादुरी के किस्से सुनाता. मसलन आज दिन में उसने किस तरह से मतदानकर्मियों को उल्लू बनाया और किस चालाकी से वह कई बार वोट डालने में कामयाब हुआ. फिर समय बदला और तकनीक ने हम सभी लोगों को एक मौका दिया है पप्पू बन जाने का. ये भी एक सच्चाई है कि अगर हम व्यवस्था से दूर भागेंगे तो बदलाव कैसे आयेगा लेकिन जो चीज पूरा देश देख रहा है उसे क्या रोका जा सका है. अभी हाल ही में देश की संसद में सरकार बचाने को लेकर पैसे बाँटने(करोड़ो में) का किस्सा सबने देखा, संसद में नोट के बण्डल लहराते भी सबने देखा तो क्या. क्या वे सारे लोग चुनावी परिदृश्य से गायब हो गए. नहीं....

सच्चाई ये है कि हम भले ही पप्पू न कहलाने के मुगालते में रहें लेकिन बदलाव कुछ नहीं आने वाला. अगर ऐसा होता तो चुनाव के दौर में शराब की बिक्री इतनी नहीं बढती और प्रशासन को शराब बाँटने वाले लोगों पर शिकंजा कसने के लिए कसरत नहीं करनी पड़ती. लोगों का मत शराब के पौवे पर तय नहीं होता और अगर हम वाकई सुधरने के लायक होते तो हमारा नेतृत्व और उसकी मांग करने चुनाव में उतरने से पहले लोग कई बार सोचते.हम ये तय भी करते कि हमारा भविष्य तय करने वाला पढ़ा-लिखा भी होना चाहिए और योग्य भी होना चाहिए. हम उसकी जवाबदेही भी तय करते और उससे सवाल करने की हिम्मत भी रखते. और फिर तब हमें पप्पू कहलाने में शर्म भी आती और पप्पू कहलाने से बचने के लिए मतदान केन्द्रों तक पहुचना हमारी मजबूरी भी होती. लेकिन अभी के हालात में अगर हम पप्पू हैं तो कोई बुरे नहीं है...

Saturday 14 March 2009

वादे पे यकीं करो...तो सभी गरीबों को स्मार्ट फोन मिलेगा!

चुनावी समर में उतरने के बाद अब सबका ध्यान जीत पर है... सभी दल बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं। आज भाजपा के पीएम इन वेटिंग आडवाणी जी ने अपना चुनावी घोषणापत्र जारी किया...इसके मुख्य वादे है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले सभी लोगों को स्मार्ट फोन दिए जायेंगे, सबको रोजगार मुहैया कराया जायेगा, हर स्कूल में इन्टरनेट शिक्षा दी जायेगी और हर भारतीय का बैंक खाता खोला जायेगा। क्या मान लें कि अब भारत से गरीबी के दिन लदने वाले हैं. अगर वाकई में ऐसा हो गया तो फिर विश्व बैंक और तमाम बड़े संगठन और गरीबी को लेकर लगातार अपना आकलन दे रहे विश्लेषक किस काम के रह जायेंगे.


अब आप ही सोचो कि अगर देश के हर गरीब(यूँ कहें कि जिनके पास नहीं है...वैसे इससे भी ज्यादातर वही लोग लाभान्वित होंगे जो वास्तव में गरीब नहीं होंगे) को स्मार्ट फोन पकडा दिया जाये। सोचो कि पूरा देश मोबाइल हो जायेगा। कितनी तेजी से लोग अपना काम कर पाएंगे और देश कितनी तेजी से तरक्की कर पायेगा। वैसे देश के दक्षिणी राज्यों में राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव के वक्त जनता से वादा करती रही है कि जीतने के बाद टीवी वगैरह देंगे. जहाँ तक देश के सभी लोगों को रोजगार देने की बात है तो ये काम हमारे देश की वर्तमान सरकार के वादों के खटोले में भी है. सच कहें तो रोजगार गारंटी योजना के तहत भी हर ग्रामीण नागरिक को रोजगार देना है जो मेहनत-मजदूरी करने को तैयार हो. इसमें प्रावधान है कि अगर रोजगार नहीं दिया जा सका तो भत्ता मिलेगा. लेकिन इस नए घोषणापत्र की परिधि में देश का हर नागरिक है. चाहे वो ग्रामीण हो या शहरी ये नयी सरकार सबको रोजगार देगी॥ अब ये कैसे होगा ये बता पाना मुश्किल है. जहाँ तक बैंक खाता खोलने की बात है तो रोजगार गारंटी योजना में भी ऐसा प्रावधान है कि सभी के खाते खुले और उनकी मजदूरी उसी खाते में भेजी जाये. अब ये राशिः सही तरीके से कितनो को मिल पाती है ये कहा नहीं जा सकता.

सरकार में आने की चाह में भाजपा ने वादा किया है कि देश के सभी स्कूलों में इन्टरनेट शिक्षा प्रदान की जायेगी। अगर सच में ऐसा हो जाये तो शहर तो शहर गाँव के लोग भी ग्लोबल विलेज में शामिल हो जायेंगे और बाकि दुनिया से कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे. लेकिन इस सपने के पहले इस बात का भी ध्यान होना चाहिए कि हमारे अधिकांश गांवों में आज भी कभी-कभार ही बिजली आती है और आज भी हमारे गाँव लालटेन युग में ही जी रहे हैं.

चुनाव के वक्त राजनीतिक बिरादरी के वादों को सुनकर ठहाका लगाना और उसका उपहास उडाने का वक्त अब गया। क्या हमें इन वादों को ध्यान से सुनना नहीं चाहिए और फ़िर अपने द्वारा चुनी हुई सरकार से उन वादों को पूरा नहीं करवाना चाहिए। अगर अब भी हम ऐसा नहीं करवा सके तो फ़िर वैसे ही ये वादे भी उसी तरह हवा होते रहेंगे जैसे पिछले ६ दशकों से होते रहे हैं...

चुनावी मौसम में सब अपनी जगह फिट हो रहे हैं...

देश में जब से चुनावी मौसम शुरू हुआ है चारो ओर हरकंप मचा हुआ है। पार्टियाँ बन और बिगड़ रही हैं, गठबंधन पैदा हो रहे हैं और नेता लोग अपनी-अपनी औकाद के अनुसार अपनी जगह पकड़ रहे हैं। सत्ता पर कब्ज़ा ज़माने के लिए सब अपनी-अपनी गोटी फिट करने में मशगुल हैं। कई थके-हारे नेता धूल झाड़कर अचानक खड़े हो गए हैं और कई नए नेता चुनावी मैदान में उग आये हैं. जिन्हें कल तक कोई नहीं जानता था आज अचानक पोस्टर-बैनरों में छपकर वे गली मोहल्लों में चिपक गए हैं...बड़े-बड़े नारों और वादों की बाढ़ में घिरे कई गुमनाम चेहरे अचानक कुर्सी की लड़ाई में शामिल हो गए हैं. ये है देश में लोकतंत्र की सबसे बड़ी लडाई की तैयारी...कौन कहाँ बाजी मार ले कुछ कहा नहीं जा सकता यहाँ..इसलिए सबसे संभलकर से बात करना पड़ता है...पता नहीं इन छुटभैयों में से कौन कल को माननीय हो जाये...और देश के सम्मानित नागरिकों में गिना जाने लगे..इसलिए भैया कुछ भी बोलने से पहले दस बार सोचना पड़ता है...शायद लोकतंत्र का यही तकाजा है...

चुनावी लड़ाई में उतरने से पहले सभी दल तैयारी में लगे हुए हैं॥ जैसा कि सब कह रहे हैं और लोकतंत्र की हमारी किताब में भी लिखा हुआ है-- इन सबका मकसद आम जानता की भलाई और उनका हित करना है...अब आइये देखते हैं क्या तरीका अपना रहे हैं सब राजनीतिक दल जानता के दिल में अपनी जगह बनाने के लिए...दलों ने लोकप्रिय हुए गानों कि धुन खरीद ली है..प्रचार के दौरान उनके दल के नारों के साथ वो धुन बजेगा और उनका अभियान भी इन हिट गानों की तरह हिट हो जायेगा... लोकप्रिय फ़िल्मी कलाकारों और छक्का-चौका जड़ने वाले क्रिकेटरों को अपने से जोड़ने के लिए तमाम प्रयास हो रहे हैं। कई फ़िल्मी सितारों को मैदान में उतारा गया है और फिल्मों में उनके द्वारा निभाई गयी भूमिका को आधार बनाकर वोट मांगे जा रहे हैं. बिहार की सड़कों को ड्रीमगर्ल के गालों की मानिंद चमका देने का आश्वासन देने वाली हमारी राजनीतिक बिरादरी ने भाई को गांधीगिरी के काम पर लगा दिया है. गाँधीजी के द्वारा उपयोग किये गए चप्पल..कटोरे आदि सामान को राष्ट्रिय अस्मिता वाली चीज बताने वाली राजनीतिक बिरादरी अब उसकी कोई कोई सुध लेने को व्याकुल नहीं दिखती...कोई भारतीय अगर उसे नहीं खरीद लता तो ये भी एक चुनावी मुद्दा बना दिया जाता...गाँधी से बड़ा बिकाऊ राजनीतिक मसला अपने देश में और क्या मिल सकता था..वो तो कहो की किसी भारतीय ने नीलामी में इसे खरीदकर इसे राजनीतिक मसला बनने से बचा लिया...

इस चुनाव में एक नया शब्द मिला है--पीएम इन वेटिंग... सबके अपने-अपने प्रधानमंत्री हैं. हर दल के पास प्रधानमंत्री पद के लिए अपना एक उम्मीदवार है, और हर दल किसी गठबंधन से जुड़ा हुआ है..हर दल का पीएम अपने गठबंधन पर दबाव बना रहा है कि उसे गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाये. इसमें कुछ गलत भी नहीं है..अनिश्चितता के इस दौर में कब किसकी लौटरी लग जाये कुछ कहा नहीं जा सकता इसलिए पार्टी वालों के आलावा निर्दलियों के भी अपने पीएम इन वेटिंग होंगे..भले ही उन्होंने अभी अपना प्लान मन में ही रखा है...सब अपनी जगह पर हैं और जो गलत जगहों पर फंसे हुए हैं उनका भी जी-तोड़ प्रयास यही है कि जैसे भी हो अपनी मुक्कमल जगह हासिल की जाये...वैसे भी लोकतंत्र में सबको अपनी जगह हासिल होनी चाहिए..तभी जाकर लोकतंत्र अपने मानदंडो पर खरा उतर पायेगा..

Sunday 8 March 2009

कौन कहता है कि गाँव वहीँ ठहरे हुए हैं?

हाल ही में गाँव से लौटा हूँ। पिछले कई सालों से एक हफ्ते में लौट आना होता था इस बार पूरा महिना बिताने का मौका मिला इसलिए गाँव को करीब से देखने का मौका मिला. इस बार देखा- गाँव पहले की अपेक्षा काफी बदल गए हैं। पक्की सड़क(हमेशा मरम्मत के काम में मशगुल भी) गाँव-गाँव में बन गयी है, जगह-जगह मोबाइल के टावर लगे दिखे, घर-घर में दोपहिया वाहन और काफी संख्या में चौपहिया वाहन भी(ज्यादातर व्यवसायिक उदेश्य के लिए जिनकी मांग शादी-ब्याह में ज्यादा रहती है) आ गए हैं। गाँव के चौक पर दुकानों की कतार लम्बी हो गयी है. सौंदर्य प्रसाधन से लेकर तरह-तरह के इलेक्ट्रोनिक सामान(ज्यादातर को लोग चाईनीज़ माल बोलते हैं) भी बिक रहे हैं. बिजली रहती नहीं और रौशनी के लिए लोगों ने बैटरी पर चलने वाले तमाम उपकरणों को अपना लिया है. बिजली कम रहने के कारण अभी भी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी कार्यरत हैं. सबसे ज्यादा भीड़ मोबाइल और सीडी की दुकानों पर दिखी. तरह-तरह के भोजपुरी फिल्मों और गानों की सीडी से दुकाने अटी पड़ी है. बाज़ार में घूमते हुए २-३ छोटे बच्चे एक गाना गुनगुना रहे थे, उस समय समझ में नहीं आया. घर आकर पूछा तो मेरा भतीजा जो कि अभी ४ साल का हुआ है उसने वो गाना सुना दिया--गाना कुछ इस तरह था--- "दिन पर दिन दुबराईल जात बारू, दिन पर दिन सुखाईल जात बारू, हईं, हम हईं दिल के डॉक्टर मिलल कर, लव के टॉनिक पियल करअ"... मेरा भतीजा अक्सर इस गाने को गुनगुनाता रहता था। अब पता नहीं ४ साल का लड़का इसका क्या मतलब समझ रहा है?

गाँव के चौक पर दुकानों की कतारों के आखिर में कुछ दुकानों देखी। पता किया वहां देसी-विदेशी दारु मिलती है. तार के पेड़ से निकलने वाली ताड़ी भी कई जगह सजी थी. इसे बेचने वालों के पास दुकाने नहीं हैं वे खुले में बेचते हैं. ये दारु का खर्च न उठा सकने वालों का पसंदीदा पेय है, कई बार लोग टेस्ट बदलने के लिए इसे चखते हैं. लेकिन ऐसा नहीं हैं कि केवल यही पसंदीदा है. दुकानों में कोल्ड ड्रिंक्स भी खूब बिक रहे थे और बच्चों को हर ब्रांड की खबर भी है. हाँ दूध मिलना जरूर कम हो गया है. बचपन में हर घर में गाय-भैंश होते थे, अब इक्का-दुक्का घरो में ही दीखते हैं. लोगों को ग्वाले द्वारा लाये गए दूध पर भरोसा नहीं है और बच्चे उसमें होर्लिक्स मिला कर पी रहे हैं और तंदुरुस्त होने के सपने के साथ जवानी की ओर बढ़ रहे हैं.

मेरे साथ मेरे गाँव का समाज भी जवान हो गया है. बचपन में देखे हुए अधिकांश परिवार टूट चुके हैं. लगभग हर परिवार में नई पीढी ने कमान संभाल ली है. लोग जागरूक हो गए हैं. पीठ पर झोला लादकर स्कूल जाते बच्चे अब भी दीखते हैं लेकिन बहुत सारे बच्चों के पीठ पर झोले की जगह स्कूल बैग ने ले लिया है. स्कूली बच्चे बोरे से उठकर बेंच पर आ गए हैं. बच्चे धुले हुए स्कूल ड्रेस पर टाई लगाकर जाने लगे हैं. मिटटी के घडों की जगह पक्के माकन दिखने लगे हैं हालाँकि अभी भी गाँव के बाहरी इलाकों में बसे काफिघर मिटटी के ही हैं और हर साल बरसात के बाद लिपे जाते हैं. खेती में भी बड़ा बदलाव आ गया है. बैल नहीं दीखते और उनकी जगह ट्रैक्टर और अन्य मशीनों ने ले लिया है. शहर की तरह गाँव में भी क्रिकेट ने गहरी पैठ बनायीं है. बच्चे बर्थडे पर बैट गिफ्ट मांगने लगे हैं और अपने प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री-राष्ट्रपति के नाम उन्हें याद हो न हो देशी-विदेशी क्रिकेट खिलाडियों के नाम उन्हें जरूर याद हैं...ये पिछले एक दशक में आया हुआ परिवर्तन है और अब शायद मैं ये कहने के पहले कई बार सोचूंगा कि गाँव बदलाव की बयार से अछूते हैं और वहीँ के वहीँ रह गए हैं.